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________________ मानव-भव से पुनः भक्चक्र के घर को : हो चुका, दोनों आये थे रुप-सुन्दरी से ब्याहने, सो लाचार होकर खाली हाथ वापस घर सिधाये । मोहमूढ़ जीवन का भी ऐसा ही हाल है । पूर्वभव में सुकृत करने से यहाँ उत्तम कुल में आया सो शिवसुन्दरी को ब्याहने । ब्याह करानेवाले देव-गुरु-धर्म भी मिले परन्तु बीच में मोह राजा ने दखलंदाजी की, मोह का सहारा लिया तो शिवसुन्दरी से शादी स्थगित हुई और जीव को पुनः भवचक्र के घर में लौटना पड़ा। बताओं, यहाँ क्यों जनमे हो । मोक्ष-शिवसुन्दरी से ब्याहने ? या पुनः संसार की गतियों में भटकने के लिए ? अब अगर संसार के विषयों के प्रति मोह के . सहारे रहोगे तो कैसा परिणाम होगा ? अमात्य के द्वारा मंत्रणा : राजा के मन में कन्या बैठ गयी है, इसलिए उसने राजमहल जाकर अमात्य को बुलाकर अपनी इच्छा प्रकट की । फिर कहा ,'देखो तुम मेरे साथ उसका विवाह करने की योजना गढ लो ।' अमात्य ने सेठ को अपने मुकाम पर बुलाकर कहा 'देखो! तुम्हारे दो उम्मीदवारों का झमेला है, दोनों समर्थ हैं, उनमें से उस अनधिकारी को बलात हटाने से शादी तो हो जाए, परन्तु बाद में भय रहता है कि वह हटाया हुआ युवक कहीं तुम्हारे दामाद को नुकसान पहुँचाए तो ? इसलिए राजा साहब उलझन में पड़े है, परन्तु मुझे ऐसा लगता है कि तुम्हारी पुत्री रानी होने योग्य रुपवती है, अतः यदि तुम अपनी पुत्री का विवाह महाराजा के साथ ही कर दो तो वे दोनों आपसी ईर्ष्या में दबेंगे, दोनों में से एक की भी मजाल नहीं कि महाराजा को या तुम्हारी पुत्री को कुछ कर सके । हाँ, इसमें इतनी एक कठिनाई है कि राजा साहब को मंजूर होना चाहिए । परन्तु तुम्हारी इच्छा हो तो महाराजा साहब को मैं समझाऊँ और तुम भी प्रार्थना करो कि मेरी कन्या से विवाह करने की आप ही स्वीकृति देने की कृपा कीजिये ।' सेठ सोच में पड़ गये कि 'यह और एक नया गुल खिला! लेकिन अमात्य की बात गलत नहीं है, और यह राजा से ब्याह करवाने को कहता है तो इस भाव में कुछ बुरा नहीं | मेरी पुत्री यदि राजरानी बनती हो तो इससे अच्छा क्या ? (सोने में सुगन्ध) बस, अमात्य से कहा, "ऐसा हो सकता हो तो सहर्ष कीजिये। परन्तु देखिये भाई साहब रानी बना कर फिर किसी कोने में न डाल दी जाय | ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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