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जगत में और कुछ भी सहायभूत नहीं है । अतः किसी के भरासे मत रहो । न किसी जड वस्तु के, न किसी चेतन के । पैसे या परिवार, सेठ या मित्र, किसी के भी भरोसे लगे रहने योग्य नहीं है । मात्र वीतराग जिनेश्वर देव को भजी, क्योंकि वीतराग को अनन्य भाव से भजने से वीतराग बना जाता है । यों कहो कि वीतराग हमारे अपने आत्मारूप हैं । हमारा आत्मा वीतराग है लेकिन कर्म की परतें जम जाने से वीतरागता ढँक गई है, और जीव राग करता है, द्वेष करता है । काम-क्रोध-लोभ- मान-मद-माया में पड़ता है । किन्तु यदि वीतराग का आलंबन दृष्टि समक्ष रखा जाय, - 'यह वीतराग का स्वरुप सो मेरा असली स्वरुप है, राग-द्वेषादि तो मेरा विकृत रूप है, उसे अब नहीं रहने दूँ' यह बात ध्यान में रखी जाय तो फिर हृदयकी वृत्तियाँ और विचार, वाणी-व्यवहार की प्रवृत्तियाँ उसे शोभने वाली उसके अनुकूल और उस ओर ले जानेवाली रखी जा सकें । जिससे क्रमशः वीतराग बनकर इस कुटिल संसाररुपी कैदखाने से मुक्त हुआ जा सके । इसलिए दूसरे की अपेक्षा, दूसरे का भरोसा छोड़कर देवाधिदेव अरिहंत वीतराग की ही शरण लो ।
कवि वीर विजयजी कहते हैं
'साची एक माया रे जिन अगगारनी
( जिन - अनगार का प्रेम ही एक सच्चा प्रेम है )
एक मात्र जिनेश्वर देव और अनगार यानी संसार त्यागी मुनि की ही ममता सच्ची निकलती है । काया माया परिवार की ममता तो आखिर खोखली ही निकलेगी। ममता करो, विश्वास रखो, तो देवाधिदेव और साधु पर |
राजा की पैंतरे बाजी :
बेचारा सेठ राजा के विश्वास पर राजा को घर ले आया, तो राजा खुद ही कन्या को हड़पना चाहता है । अब कैसे झपट लेना, उसका मार्ग निकालता है । यह राजा मानो विचार में पड़ कर सेठ से कहता है 'यह सब उपद्रव देखकर मेरा दिमाग फिर गया है, अतः फिलहाल शादी मुल्तवी रखो, दोनों प्रत्याशियों को रवाना कर दो, और मैं बाद में हल निकाल दूँगा ।' ऐसा कह कर राजा उठकर
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चलता बना।
अब सेठ भी क्या करे ? वैसे तो वह दूसरा युवक दूर नहीं किया जा सकता अतः सेठ ने दोनों से कह दिया कि अभी तो शादी मुल्तवी कर दी है अतः अपने अपने स्थान को पधारिये ।
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