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और मुझे जो उम्मीदवार पसंद है उसके साथ पुत्री की शादी हो जाय ।' परंतु उसकी यह अपेक्षा बाह्य वस्तु के लिए थी अतः उसके सफल होने में तो पुण्य का सहारा और संयोग अपनी भूमिका निभाते हैं, जब कि पुण्य कोई अपने हाथ की बात नहीं है अतः अनुकूल ही उदय में आवे और सोचा हुआ काम हो जाय ऐसा नियम नहीं है । यहाँ ऐसा ही होता है कि राजा स्वयं सेठ के यहाँ फैसला करने जाता है पर न जाने उसमें से क्या नतीजा निकलेगा ?
राजा ने क्या किया ?
कहो कि राजा आवे फिर क्या बाकी रहे ? परंतु नहीं, कन्या के भाग्य में न तो अपने माने हुए उम्मीदवार से ब्याहने का लिखा है न पिता के पसंद किये हुए उम्मीदवार से । फलतः यहाँ होता यह है कि राजा घर आया उसके बाद सेठ अपनी सजी-सजाई पुत्री को लाकर राजा के चरणों में प्रणाम करवाता है, और उसे खड़ी करके राजा को परिचय देता है कि 'यह है मेरी पुत्री, और इससे ब्याहने दूसरा गलत उम्मीदवार आकर जम गया है। तो आप उसे दूर हटाएँ यह आपसे मेरी प्रार्थना है,' और कन्या से कहता है, 'बापू से प्रार्थना करो कि बापू ! मेरा संकट दूर करने की कृपा कीजिये ।' यह विधि करता है उतने में राजा इस सुन्दर रुपवती कन्या को देखकर खुद उस पर मोहित हो जाता है और मन में विचार करता है कि 'यह तो मेरी पटरानी बनाने योग्य है, अतः अभी तो यहाँ के इस प्रसंग को एक बार ढील में डाल दूँ, बाद में मैं अपनी इच्छा पूर्ण करने का उपाय ढूँढ लूँगा ।
दुनिया में किसी का विश्वास नहीं :
कर्म की विचित्रता देखिये ! रक्षण करने राजा को बुलाया वह भक्षण ही करने की सोचता है । इस दुनिया में किस का विश्वास किया जा सकता है ? किसी का नहीं ।
कवि आत्मारामजी महाराज कहते हैं 'जिन सेवो निज आतमरूपी
अवर न काई सहायी, सखी री चाह लगी जिन चन्द्र प्रभु की
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