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________________ वस्तु है उसकी प्राप्ति और स्थायित्व में मुख्यतः पुण्य काम करता है, पुरुषार्थ कितना ही हो परन्तु पुण्य के अनुपात में वह मिलता है, टिकता है; जब कि सम्यक्त्व - ज्ञान क्षमा आदि आन्तरिक वस्तुएँ है, इनकी प्राप्ती और स्थायित्व में मुख्यतः पुरूषार्थ काम करता है। पुरूषार्थ जितना ही शक्ति शाली होगा उस के अनुपात में इनकी प्राप्ति और स्थायित्व होगा । बाह्य प्राप्ति और आन्तरिक प्राप्ति में फर्क क्यों ? । इसलिए कि अन्दर की वस्तु आत्मा के स्वरुप में तो निहित ही है परन्तु उसपर कर्म आवरण लगे होने के कारण वह बाहर प्रकट नहीं दिखाई देती। अतः अब जितना पुरूषार्थ कर कर्म की उन दीवारों-कर्म के आवरणों को तोडो उतने परिमाण में वह वस्तु प्रकट होती है, जब कि आरोग्य, दौलत परिवार प्रतिष्ठा आदि बाहर की वस्तुएँ आत्मा के शुभाशुभ कर्मों के उदय से मिलती है । इसमें कर्म की प्रधानता रहती है, पुरुषार्थ की गौणता | दही में से मक्खन निकालने के लिए उसे बिलोते समय पानी डालने का जैसा उपयोग है, वैसा यहँ कर्म उदय में आने के लिए पुरूषार्थ का उपयोग, बाकी तो जैसे दही जितना कसवाला होगा उतना मक्खन निकलेगा वैसे ही पुण्य जितना प्रबल होगा उतना धन-प्रतिष्ठा आदि का मिलना और टिकना समझे। यह बताता है कि पुण्य के आधार पर धन की प्राप्ति है। आत्महित पुरूषार्थ के अधीन क्यों ? __ आत्महित आत्मा के भीतर की वस्तु है । उस पर कर्म के आवरण चढे हुए है। उन्हें तोड़ने की जरूरत है अतः इस में पुरुषार्थ की प्रधानता है, और पुरूषार्थ हमारी अपनी धारणा के अनुसार होता है । अतः यहाँ आन्तरिक गुण-धर्म की साधना की बाबत में अपेक्षा सफल होनेका आधार पुरुषार्थ पर रहेगा । जैसा और जितना पुरूषार्थ करे उसके अनुपात में हित प्रकट होगा। उदाहरण के तौरपर - मन से सोचे कि 'मुझे क्षमा - नम्रता ही रखनी है' फिर जैसा पुरूषार्थ आजमाएँ उतने परिमाण में उसे आजमाया जा सकेगा, और पुरूषार्थ तो हमारे हाथ की चीज है अतः उस के आधारपर अपेक्षा सफल होती है । __बस, बात यह चल रही थी कि उस कन्या के पिता ने सोचा कि 'मेरी बेटी से ब्याहने मुझे जो नापसंद है वह दूसरा प्रत्याशी भी आ गया है और हठ करके डर दिखाता हुआ बैठा है । अतः राजा को बीच में लाऊँ तो राजा उसे हटा देगा ११४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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