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करने का दृढ विश्वास रखा जा सके ?
सोच हुआ क्या क्या सफल होता है ? उ० सोचा हुआ सफल हो ऐसी दो वस्तुएं हैं।
(१) जिसमें पुण्य का सहारा हो वह सोचा हुआ पार पड़ता है । वर्तमान योग्य परिस्थिति पर से एवं द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुकूल संयोगो से अंदाजा लगा सकते हैं कि हमें पुण्य का सहारा है। - शारिरीक स्वास्थ्य ठीक चल रहा है, और भूख लगी है, ऐसे में सोचा कि 'खाऊँ ताकि शरीर काम करने में समर्थ रहेगा' तो यहाँ सोचे हुए में पुण्य का सहारा कहा जाएगा ओर उचित परिणाम में भोजन लिया जाय इसे द्रव्य-संयोग अनुकूल होना माना जाएगा - वहाँ सोचा हुआ सफल होगा । __ अब अगर स्वास्थ्य ठीक नहीं हैं, उदाहरणतया शरीर सुस्त है, बार बार पिशाब होता है, तो यह अजीर्ण का लक्षण है, 'अजीर्णे बहुमूत्रता' वैद्यक शास्त्र का यह कथन है । इस स्थिति में पुण्य का सहारा नहीं कहा जाता। फलतः यदि खाऊँ और बलवान बनें ऐसी धारणा से खाए तो यह धारणा सफल नहीं होगी। - इसी तरह - स्वास्थ्य तो अच्छा है इसलिए पुण्य का सहारा है, परन्तु कुछ ही देर पहले भरपेट भोजन किया है और अब सोचे कि 'ये पेडे आये है सो खाऊँ ताकि अच्छी ताकत आएगी' तो यह अपेक्षा पेडे खाने से सफल नहीं होगी, ताकत के बदले बीमारी होगी ऐसा क्यों ? आरोग्य के पुण्य का सहारा तो था किन्तु अनुकूल द्रव्य - क्षेत्र -आदि में से अनुकूल भाव का संयोग नहीं था । अनुकूल भाव यह कि आहार लेने की सही रूचि अर्थात भूख । उसके न होने के कारण पेडे खाने से भी अपेक्षित शक्ति कैसे आए ? सोचा सफल नहीं होता |
यही बात व्यापार में भी है। पुण्य का बल न हो और व्यापार करे तो सोचे हुए मुनाफे की जगह नुकसान हो, सोचा हुआ सफल न हो। इस तरह द्रव्य-क्षेत्र काल भाव का अनुकूल संयोग न रखे तो भी पछाड़ खाता है | प्रतिकूल द्रव्यादि से धंधा करे तो, लेने के देने पड़ जायँ, अपेक्षित सफल न हो यह एक बात हुईं।
(२) सोचा हुआ सफल क्या होता है उसका दूसरा मुद्दा यह है कि जो आत्महित का सोचा जाय, उसके अनुकूल सामग्री तैयार की जाय, तो वह सोचा हुआ आत्महित साधा जाता है। यह बहुत महत्त्व की बात है ।
एक बात समझ रखे कि जितना भी बाह्य - प्राप्ति है वह पुण्य-पाप के अधीन है औ जो आभ्यंतरिक वस्तु है वह पुरूषार्थ के कारण होती हैं । जैसे -धन बाह्य
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