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________________ सच्चा सत्त्व यह है । सात्त्विकता नम्रता सहजवृत्ति में है। उस में तो निरा तामसभाव है। सामनेवाला गुस्सा करता हुआ आवे तो उसे धमका देने में सात्त्विकता नहीं है । पर तामस भाव है । सात्त्विक भावका विकास तो इस में है कि सामनेवाले की गुंडागिरी का कोई प्रतिकार नहीं, सामना नहीं, बचने की इच्छा नहीं बल्कि सहर्ष सहन कर लेना। महावीर प्रभुने दुष्टों के उपसर्गों में यही किया शांत - प्रशान्त चित्त से इस तरह सहन ही करना जारी रखा ! तो उसके फलस्वरूप सत्त्व ऐसा खिल उठा कि उसके कारण अन्त में अपूर्व करण! सामर्थ्य योग ! और क्षपकश्रेणी लगा कर केवलज्ञान प्राप्त किया । अज्ञानी लोगों की ओर मत देखो : .. मानव में यह बहुत मजेका कार्य है कि जो सहने की बात आवे, भीतर दबाने की बात आवे तो आने दो। उसे शांति से सहन ही करना । जराभी उत्तेजित नहीं होना चाहिए । किसी तरह का अभिमान क्रोध रोष रोब नहीं दिखाना । ऐसा छोटे से बड़ा जो कुछ भी जितना जितना सहन - दमन किया जाय उतनी उतनी सत्त्व की मात्रा अन्तर में बढती जाती है । भले ही लोग स्त्रैण कहे, इसमें पानी ही नहीं है ऐसा कहें, फिर भी ऐसे मूढ, अज्ञानी लोगों की परवाह न करो । अपने वीर पूर्वजों की ओर देखो। उक्त श्रेष्ठिपुत्र ने कन्या के बाप को धमकी दी, कन्या की शादी न करने देने की हठ ले कर बैठ गया । सेठ पिता उलझन में पड़ गया कि क्या करूँ ? आखिर उसने नगर के राजा की शरण ली | जाकर राजा से यह आपत्ति दूर करने की प्रार्थना की। राजा ने कहा, 'चलो ! मैं स्वयं आकर निपटा देता हूँ। ऐसा कह कर राजा स्वयं वहाँ आता है । अब देखिये ! मनुष्य कर्म की एक आफत दूर करने की कोशिश करता है तो कर्म कोई और आफत कैसी लाकर खड़ी कर देता है । कर्म को जबरदस्ती के आगे मनुष्य का सोचा हुआ क्या होता है ? तब प्रश्न उठता है - प्र० तो क्या मनुष्य कुछ सोचे ही नहीं ? उ० इसमें विवेक का उपयोग करना चाहिए। ऐसा सोचा हुआ किस काम का जो पार ही न पड़ सकता हो ? ऐसा सोचकर क्या फल पाया ? अपेक्षा ऐसी रखें कि जो अपने हाथ की बात हो, जिसे स्वयं पैदा कर सके, जो सोचा हुआ सफल हो । प्र० यों तो इस कर्माधीन जीवन में ऐसा तो क्या है कि जिससे सोचा हुआ पूरा ११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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