________________
(ii) दूसरों को अपराधी नहीं माने, और
(iii) उन्हें सहर्ष सह लें (२) हमारे सीधी राह चलते हुए भी देखने में भले ही हमें दूसरों के निमित्त से पीडा आई हो, पर वहाँ यदि हमने मन बिगाड़ा और दूसरे पर द्वेष काली लेश्या आदि की तो कर्म को शर्म नहीं है । वह शीघ्र ही अशुभ रुप में हमारी आत्मा पर चिपक ही जाएगा ! और उसके कुफल परलोक में आ उपस्थित होंगे ।
। ११.कामान्ध श्रेष्ठिपुत्र का दृष्टांत ।
एक नगर में एक सेठ को अपनी कँवारी पुत्री का विवाह करना था | एक श्रेष्ठिपुत्र के साथ ब्याहना तो निश्चित हो चुका था । अब वह बारात के साथ घोडे पर बैठ कर ब्याहने आ गया । परन्तु उस कन्या को पहले एक अन्य श्रेष्ठिपुत्र से प्रेम था, वह भी इस कन्या को बहुत चाहता था । सो वह भी बरात के साथ वहाँ ब्याह करने आ गया ! और रोब के साथ कन्या के पिता से बोला, 'आपकी कन्या की शादी मेरे ही साथ होनी चाहिए, नहीं तो मैं उसकी शादी हरगिज़ दूसरे के साथ नहीं होने दूंगा ।' बस वहाँ हठ कर के उसने पडाव डाल दिया ।
मानव भव में कर्त्तव्य :
है न सीना जोरी मानव जाति में भी ऐसे उत्पातकारी तत्व होते हैं । इस कारण दूसरों को बहुत दुःखी होना पडता है, पर उस उत्पातकारी को कहाँ परवाह होती है ? उसे तो अशुद्ध पुण्य के योग से राक्षसी बल मिला है | राक्षसी धन
और सत्ता मिली है, सो उनके बल पर उसे रोब गाठते हुए ही फिरना है, और दानवीय कार्य करने हैं। जंगली पशु के तथा म्लेच्छ जैसे मानव के अवतार में तो ऐसे कार्य किए परंतु उत्तम आर्य मानवावतार में भी वहीं ? दर असल तो उत्तम आर्य मनुष्य के भव में उनका मूल्यांकन कर उनसे उल्टी रीति नीति अपनानी चाहिए । अर्थात धन-बल सत्ता विद्वता वगैरे मिला है पर उसके बल पर सीना जोरी - जबरदस्ती तानाशाही नहीं बल्कि अति नम्रता, मृदृता और सहनशीलता अपनानी चाहिए ।
१११
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org