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अतः कुलमिलाकर बात यह कि 'कर्म का लेखा पूरा करों ।' जोगी को शूली पर
चढ़ना पड़ा।
| कर्म केवलज्ञानी को भी नहीं छोडता :
प्र० ज्ञान था तो पहले से ही अन्य स्थान पर जाकर बच नहीं सकता था ? उ० सवाल अधुरी समझवाला है। ज्ञान था तो कैसा ज्ञान था? ऐसा कि उस पर ' आरोप लगनेवाला है।' यह मालूम था । बस । अब अन्य स्थान पर जाय तो भी क्या ? वहाँ कोई ऐसी घटना घटे कि आरोप का निमित्त उपस्थित हो ही जाय । कर्मसत्ता कहाँ छोडती है ?
निकाचित कर्म रक्षक की आँखें में धूल झोंकती है ।
यह तो अवधिज्ञानी की बात है, पर प्रभु महावीर तो केवलज्ञानी थे । सर्वज्ञ थे, उन्हें बचने के उपाय नहीं मिल जाते ? परन्तु नहीं, निर्धारित कर्म का उपाय उन्हें भी नहीं छोड़ता । गोशालक आकर उन पर भी तेजोलेश्या छोड़ बैठा । निःसंदेह वह प्रभु के शरीर में प्रवेश नहीं कर सकी, पर केवल प्रदक्षिणा देकर गयी, तो भी उससे भी प्रभु को छः महिनों तक गर्मी की पीडा रही ! प्रभु वीतराग थे अतः वे चाहें स्वयं पहले से किसी अन्य से न कहें कि 'गोशालक मुझ पर तेजोलेश्या डालने वाला है अतः तुम सावधान रहना, परन्तु भगवान के पास जघन्यतः (कम से कम) एक करोड़ देवता तो सदा साथ रहते हैं कि नहीं ? वे सब कहाँ गये कि किसी को यह नहीं सूझ पाया कि, 'चलो, मैं गोशालक को पहले से रोक लूँ ? कहो कि प्रभु का पहले बाँधा हुआ निकाचित कर्म उदय में आनेवाला था सो ऐसा कि किसी को सूझे ही नहीं । सबकी आँखों में धूल झोंक दे । सभी को गफलत में अनुपयोग अनजान में डाल दे !'
दो महान तत्त्व :
बात यह है कि....
(१) कर्मसत्ता यदि केवलज्ञानी को भी न छोडे तो हमारी क्या बिसात जो हमें छोडे ? अतः जीवन में सीधी राह पर चलते हुए भी पीडाएँ- आपत्तियाँ आती हैं उन्हें अपने ही कर्मों के निर्धारित अनिवार्य फल समझकर
(i) उसमें आकुल व्याकुल न हों,
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