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कर्म सत्ता ने तो जीव के प्रति एकही सूत्र रखा है : दूसरो के कसूर से भी तूने अपना मन विगाडा न? तो ले सजा, और तेरा कसूर होते हुए भी बाद में समझदार बन कर तूने अपने मन को सुधार लिया ? पक्का पश्चाताप-तपस्या अपनायी? तो लेता जा इनाम ।'
खंधक मुनि का और झांझरिया मुनि का वध करने वाले राजा ने मुनि के कसूर के बिना महात्मा का वध किया, फिर भी बाद में मन को सुधार लिया तो वे दोनों राजा उसी भव में सब कर्मों का नाश कर के मोक्ष को प्राप्त हुए | नागदत्त सेठ का बाप बकरा बना था, उसके अपराध के बिना कसाई ने उसे काट डाला, इसमें बकरे ने मन बिगाड कर कृष्ण (काली) लेश्या की तो वह मरकर नरक में उत्पन्न हुआ ।
जोगी का दृष्टांतः ज्ञान के बावजूद कर्म नहीं छोडता :
शास्त्र में ऐसा प्रसंग आता है कि एक मनुष्य दूसरे पर झूठा आरोप लगाता है, जिससे उस बेचारे को भयानक सजा मिलती है | यह आरोप लगाने वाला मनुष्य ऐसा भयंकर अनुबंधयुक्त पाप उपार्जन करता है कि उसपर १०८ भवों तक आरोप लगा करता है | उनमें से जब अंतिम एक सौ आठवा भव होता है तब चूँकि वह पाप अब बिल्कुल दुर्बल हो गया होता है इसलिए वह वैरागी-जोगी बनता है और उसे संयम-तपस्या के फल स्वरुप अवधिज्ञान जैसा विभंग ज्ञान होता है | वह उसमें देखता है कि बहुत पहले के भव के पापाचरण के कारण यहाँ भी आरोप लगानेवाला है, और खुद उसमें से नहीं बच सकेगा? सो होता यह है कि 'वह स्वयं एक नगर के बाहर उद्यान में ध्यानरत है और एक चोर किसी की रत्नमंजूषा चुराकर दौडा आ रहा है । पीछे कोतवालों को आते देख चोर उस रत्नमंजुषा को इस जोगी के पास रख देता है और खुद भाग जाता है । कोतवाल लोग आकर जोगी के पास संदूक पड़ा देख जोगी को राजा के पास उठा ले जाते हैं । राजा कहता है, 'अरे दुष्ट ! तू योगी के बनावटी वेश में रह कर ऐसे धंदे करता है ?' सिपाहियों से कहता है 'जाओ, इसे शूली चढ़ा दो ।' __ अब यहाँ वह जोगी यदि सफाई दे तो भी कर्मसत्ता तले उसे कौन स्वीकार करेगा? जोगी निर्दोष है तो भी कर्मसत्ता कहाँ बचने देती है ? फिर जोगी स्वयं जोगीपन के हिसाब से जंगल में भागे हुए चोर की बात भी नहीं बता सकता,
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