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________________ महाराजा को जीवनभर उसे प्रेम-पूर्वक रखना चाहिये ।" ___ अमात्य ने कहा, "मैं प्रयत्न करता हूँ , फिर तो जैसी आपकी और कन्यः की तकदीर । बुद्धिमान है अमात्य। बनिये को जरा भी झनक नहीं पड़ने देता कि 'राजा तो स्वयं ब्याह करने को आतुर है ।' वह तो अभी तक ऐसा ही दिखाता है कि, "मुझे यत्न करना रहा, होना न होना भाग्य के अधीन है।" कुशल सेवक अपने स्वामी की प्रतिष्ठा को अच्छी तरह सम्हालते है : पुत्र पिता का सेवक, पत्नी पति की सेविका, शिष्य गुरु का सेवक, नौकर मालिक का सेवक इन सबको यह ध्यान में रखना चाहिए कि स्वामी की इज्जत सेवक की इज्जत है । सेवक को ऐसा लगना चाहिए कि मैं हो सकें उतना यश अपने स्वामी को दिलाऊँ । उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा करूँ, उसे बढाऊँ ।' तो यह सेवकत्व कहलाए, स्वामी की सेवा की हुई मानी जाय । उसके स्थान पर एक ओर स्वामी की बदनामी हो और यश अपने खाते में जमा करे तो ऐसी सेवा करनेवाला सेवक कैसा ? __ अमात्य ने सेठ से कहा, 'बाद में मिलना, मैं मौका देखकर महाराजा से बात करूँगा । यह भी होशियारी! तुरन्त नहीं निपटना है कि, ठहरो, मैं राजा से बात कर आता हूँ ।' इससे शायद वणिक् को गंध आ जाय तो -कि यह तो पहले से योजित (पूर्वयोजित) लगता है | नहीं, वह तो ऐसे मनवाता है कि यह बड़ी बात है अतः अवसर खोजना पडे । योग्य अवसर दिखाई दे तभी महाराज के कान में बात डाली जाय ।' बस, सेठ अपने घर गया । मन में तरंगित होता हुआ कि वाह ! मेरी वणिक कन्या राजरानी बने तो कितना अच्छा , भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवान ! ऐसा करो कि अमात्य से राजा समझ जाय | भगवान को कब याद करना ? और भगवान से कैसे काम करवाना ? __ हमारी बलिहारी है । जब तक सब सीधा चले, अनुकूल चले तब तक दिमाग में हमारी काया-कुटुंब तथा तत्सम्बन्धी वस्तु ही रमा करती है । केवल भगवान नहीं! सब अच्छा मिला भगवान के शुभ प्रभाव से, परन्तु 'रोग मिटा कि बैद बैरी 'कहावत की तरह भगवान् से अभीप्सित प्राप्त हो जाने के बाद भगवान को याद ११८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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