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________________ बनेगा। माता की अवगणना करेगा, विषयांधता वश पली का पुजारी बनेगा, अतः उसमें सत्त्व विकसित हो इस हेतु से त्याग तप सहिष्णुताका भी अभ्यास देते रहो। (३) श्रेष्ठ मुनिमहाराज या उत्तमश्रावक जीवन जीनेवाले सुबुद्ध श्रावकों - विद्वानों के ऐसे धार्मिक-आध्यात्मिक शिक्षण संस्करण दिलाने के कार्यक्रमों की योजना कीजिये जिनमें विद्यार्थियों को दिलचस्पी पैदा हो, ताकि उन्हें विश्व क्या है ? विश्व में खुद कौन है ? विश्व के साथ अपने क्या सम्बन्ध है । विश्व का संचालन कैसे होता है। आत्मा की अवनति कैसी और काहे से (किस कारण)? कौनसी उन्नति और उसके कौनसे उपाय है ? तत्त्व कौन से है? आचार कौन से हैं ? मानव जीवन का महान् मूल्य क्यों है? यह जीवन जीकर क्या क्या करना है ?...... आदि आदि का हृदयस्पर्शी ज्ञान हो । अन्तरात्मा जागृत हो, ज्ञान दृष्टि खुले, हमारे पराक्रमी पूर्वजों का गौरवमय इतिहास ज्ञात हो, उस में से प्रेरणाए ली जाएँ, हृदय परिवर्तन हो, और वे अपना जीवन सुव्यवस्थित बनाएँ। यह सब आज के युग में सिखाना संभव है। (४) एक उपाय साहित्य का भी है । आज के लड़के लडकियों का पढ़ना बहुत अधिक हो गया है । यदि उन्हें अच्छी अच्छी पठन सामग्री नहीं दोगे तो जो बहुतेरा कुडा करकट साहित्य प्रकाशित होता है उसे पढ़ पढ़ कर वे अपना मस्तिष्क एकदम तहस-नहस कर डालेंगे | आजकल के समाचार-पत्रों की रपटें, कहानियाँ, उपन्यास, मेगजीन आदि बहुत पढ़े जाते हैं । एक ओर साहित्यकार, प्रकाशक एवं समाचार पत्रवाले लोग रुपये कमाने का पेशा लेकर बैठे हैं, और दूसरी ओर मानव-मन विषयों के उन्माद से युक्त है। ऐसे विषयोन्मादमय मानव-मन को गुदगुदाने वाला साहित्य बड़ी तेजी से प्रकाशित हो रहा है , फिर क्या बाकी रहे ? जिससे बहुत से विषयों के भूखे जीव उसे खरीद लें ताकि इन लोगों को खूब आमदनी हो । पर इससे आज की भोली पीढी की कैसी हालत ? वासना की कैसी खतरनाक उत्तेजना ? विकारों का कैसा आक्रमण ? इस तरह के पाप साहित्य के खिलाफ अगर equivalent बराबर आकर्षक भव्य आध्यात्मिक प्रेरणा से पूर्ण साहित्य नहीं रखा गया तो नयी पौध की रक्षा किस तरह कर सकोगे ? उत्सव-महोत्सवों से सन्तुष्ट हो जाते हो | आज के अश्लील और कामोत्तेजक साहित्य, सिनेमा तथा उद्भट वेश-व्यवहार में बहती नयी आर्य सन्तान को और सुधरी हुई प्रौढ़ पीढी को इस भयंकर विषयांधता, विलासिता तथा उद्भटता से १०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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