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मिलता? यह समझदारी हो तो फिर रोना कैसा ? इस तरह पुण्य की कमी का ख्याल है और इसी कारण केवल सुख-सुविधा का ही यदि हक न चाहे तो अनूकूलता में रुकावट आने पर या अनचाहा - प्रतिकूल आ पड़ने पर कोई रोतलापन या शिकायत नहीं उठेगी ।
अपने पुण्य का नाप कर लोः___ मनुष्य को अपनी प्राप्ति (सिद्धि) पर अपने पुण्य का नाप ले रखना चाहिए। कोई बड़ा धनाढ्य है खूब धन कमाता है, एवं उसका स्वभाव - व्यवहार अच्छा है फिरभी अगर सगे-सम्बन्धी उसके बोल को स्वीकार नहीं करते, उन्हें अगर वह प्रिय नहीं लगता तो उसे समझ लेना चहिए कि 'अच्छा कमाई की दृष्टि से लाभांतराय का क्षयोपशय अच्छा है परंतु आदेय नामकर्म और सौभाग्य नाम कर्म का पुण्य उतना नहीं मिला है, उसमें त्रुटि है, अतः स्वभावतः अपना बोल स्वीकार्य नहीं होता, स्वयं सामनेवाले को अच्छा नहीं लगता | पुण्य की ऐसी कमी हो तो ऐसा हक क्यों मानना कि 'मेरा वचन सब कैसे नहीं माने? क्यों सब प्रेम से मेरा स्वागत आदर नहीं करते ।
अधिकार छोड़ने से बचाव और लाभ - __ प्राप्ति पर से पुण्य का नाप निकालने से गलत अधिकार नहीं रखा जाएगा। फलतः बिना हक की वस्तु न मिलने पर रगडे -झगडे नहीं किये जाएंगे। निःश्वास नहीं छोडे जाएँगे, दुर्ध्यान, संकल्प-विकल्प नहीं होंगे। पुण्य का नाप निकाल कर, पुण्य की कमजोरी समझकर अच्छी अनुकूलता - सुविधाओं का अधिकार छोड देने से कितना सारा बचाव? कितने सारे फायदे? बस समझ लिया कि इन इन विषयों में हमार पुण्य ही कच्चा है, तो दूसरों का आदर सम्मान पाने और प्रेम पाने के लिए व्यर्थ परेशान होना ही नहीं। मानव जीवन का अमूल्य समय तथा तन-मन-धन की अमूल्य शक्ति का क्यों ऐसे निष्फल मार्ग पर अपव्यय किया जाय?
इसके बनिस्वत मैं देव-गुरू धर्म-संघ शास्त्र का ही विचार क्यों न करूँ ? यथाशक्ति इनकी ही सेवा - सारसम्हाल क्यों न करूँ ? सेठ के यहाँ तीन फेरे दूँ ? प्रिय प्रियातिप्रिय के पीछे धन खर्च करने के बदले अपने देवाधिदेव और उनके शासन की सेवा में धन क्यों न खर्च करूँ ? इस तरह सोचकर उसके मुताबिक कार्य करे तो कितने सुकृतों और शुभ कार्योंका लाभ मिले । यह सब
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