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रखना ?
अनुकूलता में कमी आ जाए या प्रतिकूल घटित हो जाय तब जीव को अफसोस क्यों होती है | 'अरे ! यह अच्छी तरह चल रहा था सो कैसे बिगड़ा? क्यों यह प्रतिकूल आया ? ऐसी शिकायत क्यों होती है? कहो कि मन से मानो मान रखा है कि “मैं तो केवल सुख-सुविधा का ही अधिकारी हूँ, मुझे भला दुःख असुविधा प्रतिकुल काहे की हो ? क्यों आवे ? इस तरह मात्र सुख का ही अधिकार रखने से दुःख आने पर शिकायत होती है। अपनी जमीन पर अपना हक-दावा रखने के बाद अगर सगा भाई भी उस जमीन में से एक हाथ भी जमीन दबा ले तो लड़ाई होती है न? 'अरे ! मेरी जमीन कैसे दबाता है ? मन में ऐसी बात उठती है न? सुख-सुविधा में त्रुटि आने पर या दुःख असुविधा उत्पन्न होने पर मन को ऐसे होता है कि ऐसा क्यों? रूदन शुरू होता है । हाय हाय सन्ताप, आकुलता - व्याकुलता मन को सताती हैं। वहाँ चलती हुई सुन्दर धर्म-साधना भी एक ओर धरी रह जाती है उससे मन उठ जाता है, और आक्रन्द करता है । यह सब किस आधार पर? पुण्य की दुर्बलता के बावजूद सुख-सुविधा का अधिकार मानने के कारण ।
उचित विचारः
जो सुख-सुविधा मिले उसे मनुष्य भले भोग ले, परन्तु यदि उस पर हक्क न लगाये कि 'मेरे तो ऐसा ही होना चाहिए ऐसा ही मिलना चाहिए' परन्तु यह समझ रखे कि, 'अपना कोई ऐसा प्रबल पुण्य नहीं है कि सबकुछ टिपटोप अनुकुल ही मिले | पुण्य में हम अधूरे हैं, पुण्य पतला है | अधूरे या दुर्बल पुण्य में सारी अनुकूलता का अधिकार क्या चाहता ? कम अनुकूल भी मिले प्रतिकूल भी मिले यह स्वाभाविक है । तो चिंता नहीं, आने दो उसे । बार बार मन में ऐसा घोंट रखा हो तो फिर अनुकूलता में बाधा पड़ने पर अथवा एकाएक अनचाहा - प्रतिकूल आ पड़ने पर मन को अफसोस नहीं होगा । विलाप या शिकायत नहीं उठेगी कि ऐसा कैसे हुआ?' गरीब आदमी बाजार में सब कुछ देखता है परंतु दुःख कहाँ रोता है कि 'यह माल मुझे क्यों नहीं मिलता ? क्यों यह व्यापारी दूसरे को यह माल देता है और मुझे नहीं देता । नहीं, ऐसी कोई शिकायत नहीं, कोई असंतोष नहीं, रुदन नहीं- क्यों नहीं ? क्योंकि समझ रखा है कि 'अपने पास पैसे नहीं हैं, अतः माल पाने का अपना कोई अधिकार नहीं है । हक के बिना अरमान क्या रखना कि यह क्यों नहीं मिलता ? और वह क्यों नहीं
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