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________________ दिखाई दी, अब उसे ठीक करना है। देखे तो यह मामूली सी चीज है , उसमें कोई माल नहीं है। परन्तु हमारे जी को यों ही बैठे बैठे या देवदर्शनादि क्रिया के समय उस शिकन पर ध्यान जाते ही तुरन्त उसे ठीक करने की इच्छा होती है (मन करता है) और यह इच्छा उस सुन्दर देवदर्शनादि की विचारधारा को भंग करती है | क्या यहाँ इच्छित वस्तु में कोई सार है ? शिकन ठीक हो जाए इससे क्या कोई निर्मल यश प्राप्त होता है? क्या उससे धर्म क्रिया की शोभा होती है ? कुछ भी नहीं, फिर भी ऐसी मामूली इच्छा, को भी रोकना जितना सामर्थ्य नहीं है, निःसत्वता है, अज्ञान है। ऐसी व्यर्थ इच्छाएँ कर कर के जीव महामूल्यवती साधना की अर्थात अति अमूल्य शुभ भाव की धारा को तोड़ देता है । ऐसी इच्छा पर थोडा सा नियंत्रण रखे तो कितना बच जाय । ऐसा ही आडे-टेढ़े ताकते रहने में या कौन आया कौन गया सो देखते रहने में होता है। इस में भी भीतर से देखने-जानने की इच्छा हुई होती है, परन्तु जो जानना है सो वृथा है, निःसार है। यहाँ भी ऐसी इच्छा को छोड दे, मन को मना ले कि ऐसा कूडा कट कट, अटं शंट जानकर क्या लाभ होगा? उलटे ऐसा कूडा दिमाग में डालने से दिमाग कमजोर, सत्वहीन बनता है । फलतः तत्व की बातों एवं आराधना की उपयोगी बातों में दिमाग को रमाये रखने की कूवत नहीं रहती, मन उसमें स्थिर नहीं रह सकता | मन कैसे स्थिर बने ? | (१) वह तो व्यर्थ, सारहिन बात-वस्तु दिमाग में न डालने का निश्चय किया जाय, और दिमाग में नहीं ही डाली जाय तभी उत्तम उपयोगी बात में मन स्थिर रहे । __(२) इस लिए ऐसा व्यर्थ का जानने और पाने की इच्छाएँ ही बन्द कर देनी चाहिए। जीव बेचारा इच्छाओं का बड़ा बोझ ढोता है । पर अब उसे कम कर डालना बहुत आवश्यक है। इस से सोचे मुताबिक न बनने की विटंबना से पीडित न होना पड़े । सोचा हुआ न बनने यह विटंबना ही है न ? तो क्यों सोच ही रखना? मन से मान रखे कि 'होने दो जो कुछ काल, कर्म और भवितव्यतानुसार होता हो। हमें व्यर्थ धारणाएँ-इच्छाएँ करनी ही नहीं चाहिए ताकि तदनुसार न हो तो उसकी चिंता नहीं। खूबी तो यह है की चिंता करने से कुछ नहीं बनता, बने भी तो उपाय करने से फिरभी कुछ बने, परन्तु इच्छा-धारणाये चिंता उपस्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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