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और उसके लिए बाह्य प्रभु दर्शन की आवश्यकता है ।
प्रभुदर्शन में वीतरागमुद्रा दृष्टि गोचर होती है; उसमें वीतरागत्व के गुण और वीतराग का (i) पूर्व का साधक जीवन तथा (ii) बाद का अनासक्त ज्ञानमय जीवन स्मृति में लाया जा सकता है ।
इस जीव की ऐसी आदत हो गयी है कि बाह्य के दर्शन में उस उस तरह के आन्तरिक भाव जाग्रत होते हैं । बजाज (कपड़ेवाले) को देखकर कपड़े के विचार और जौहरी को देख कर जवाहिरात के विचार आते हैं । बूढी माता को देखने पर मातृ-भक्ति का भाव जाग्रत होता है और जवान पत्नी को देख कर कामराग का भाव जाग्रत होता है, तब स्वाभाविक है कि वीतराग प्रभु को देखकर उनके जीवन सुकृतों और गुणों के विचार आएँ ।
रत्नों को छोड़ कर कंकड चुनने की दुर्दशाः
बात यह थी कि प्रभु के दर्शन करते समय किसी को बीच में खड़ा देख कर 'यह कैसे हटे' ऐसे विचार में चित्त चला जाता है; परन्तु किये हुए दर्शनों के स्मरण का या वीतराग के गुणों का विचार वहाँ नहीं आता। यह कैसी बदकिस्मती है? इस समय तो यह स्मरण या विचार करने का अवसर है, दर्शन की क्रिया में से हटने के बाद तो दूसरे कार्यों में पड़ने पर इसका मौका ही कहाँ ? फिर भी मूढ जीव को वह कोई दर्शन के बीच खडा हुआ हो तब प्रभु के गुणों सुकृतों और उपकारों को याद करना सुझता ही नहीं। और 'वह कैसे हटे, कैसे हटे' इसका रटन सूझता है। काहे से ? (क्यों ?) रत्नों की खान मिली है तो भी रत्न इकट्टे करने के बदले कंकड बीन कर इकट्ठे किये जाएँ यह कैसी बुरी हालत है ? किसं लिए ?
गलत इच्छाएँ:
कहो कि - बेचारे जीव को निरंकुश सीमा रहित रूप से इच्छाएँ करने को चाहिए। परिस्थितियों के अनुसार चला लेना और मन को धीरज रखना उससे नहीं निभता; सो मन अपार इच्छाएँ किये जाता है !
व्यर्थ इच्छाएँ जहरीली नागिने हैं, वे चालू पवित्र विचारसरणी करनेवाले मन को मूर्च्छित कर देती है। ___ आप चाहे कितने ही सुन्दर विचार में चढे हों, पर ज्यों ही कोई फुजूल इच्छा जगी कि तुरन्त वह अच्छी विचारधारा बन्द । क्योंकि मन उस इच्छा की पूर्ति के
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