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________________ ऐसी स्थिति कहाँ है कि सगे- स्नेहियों के चेहरे बहुत अधिक नज़र में आते हों और उससे मन को ग्लानि होती है कि हाय ! बार बार राग उत्पन्न करने वाले इन रागभरे चेहरों के साथ टकराना कहाँ से मेरे साथ बँधा ? कब तक इस जंजाल में फँसा रहना पड़ेगा ? ऐसी ग्लानि कहाँ होती है ? दर्शन अम्यन्तर करो: क्यों नहीं है यह स्थिति ? कहो कि, बाह्य से प्रभु-दर्शन किये पर अन्तर से कहाँ किये है ? जरा कोई दर्शन के बीच में आ खड़ा हुआ कि दर्शन में से उछल पड़े। पैठ गये क्रोध में। सच पूछो तो ऐसे अवसर पर बाह्य दर्शन छोड़कर आभ्यंतर दर्शन में प्रविष्ट होने का मौका मिला है । मन को यह लगे कि, 'चलो, अच्छा हुआ भाई बीच में जो आ गये। अब मुझे मौका मिला कि अब अभ्यंतर में (भीतरी) दर्शन करूँ। आडे आयें हुए भाई के आरपार देखूँ कि क्या भगवान हुबहू दिखाई देते है । अथवा आँखें आधी मूँद कर जाँचूँ कि भगवान ज्यों के त्यों दिखाई देते हैं ? प्रभू की सुरत कैसी है ? कैसा चेहरा है ? कैसा है ललाट चक्षु, नासिका ? बन्द होठों की आकृति कैसी ? गाल ठोढी कैसे है ? यदि यह कुछ नहीं दिखता तो कैसे दर्शन किये थे ? प्रभु को क्या देखा ? यदि प्रभु को किसी ध्यान में ही न लेना हो तो दो मिनट क्या बारह मिनट खड़े रह कर भी करना क्या ? बीच में कोई आड़ा खड़ा है या नहीं खड़ा इससे क्या फर्क पड़ता है ? यदि मुद्रा को अपने ध्यान में लेना नहीं हो । प्रभुदर्शन की क्या आवश्यकता है ? प्र० परन्तु प्रभु के दर्शन में तो प्रभु का जीवन ही विचारना है न ? प्रभु की बाह्य आकृति ध्यान में न ली उससे क्या ? उ० तब तो फिर कोई आड़ बन कर खड़ा हो गया और प्रभु की आकृति दिखाई न दी तो इसमें क्या हर्ज हो गया ? कि जिससे आडे उपस्थित हुए पर इतना गुस्सा आता है ? प्रभुकी मुद्रा को यदि ध्यान में नहीं लेना है तो दर्शन चाहें न हों, एकसी बात है । प्रभु के जीवन का विचार तो दर्शन के बिना प्रभु को स्मृतिपट पर लाकर हो सकता है । प्र० तो क्या दर्शनों की जरूरत ही नहीं है ? उ० जरूरत तो बहुत बड़ी है ! हाँ, जिसे प्रभु की मुद्रा को ध्यान में लेना ही नहीं है उसे क्या आवश्यकता है । अन्यथा प्रभु के दर्शनों का बड़ा फायदा है; ९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003227
Book TitleKuvalayamala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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