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लेकिन कुटिल इच्छाओं की बड़ी टोलियाँ या एकाध गलत इच्छा भी मन को उसमें से उठा लेगी, विह्वल करेगी ।
प्रभुदर्शन में से उठा लेनेवाली इच्छा
आप जानते हैं कि आप प्रभु के दर्शन में खड़े रह कर दर्शन कर रहे हैं, और बीच में कोई आड़ा खड़ा हो गया; वहाँ यदि यह इच्छा हुई कि 'यह कब खिसके' तो दर्शन और प्रभु स्मरण में से चित्त उठ कर उस मनुष्य के खिसकने के विचार में जाएगा । और वहां 'वह बीच में खड़ा आदमी कब खिसके ? केवल इतनी इच्छा से ही काम नहीं निपटेगा। यदि वह वहाँ से सरकने में देर करेगा तो गुस्सा, अरूचि, उद्वेग भी उठेगा । फलतः बडे वीतराग प्रभु आदीश्वर दादा मिलने के बावजूद चित रागद्वेष में पड़ जाएगा। जिस वीतराग से तो रागद्वेष से बचना सीखना है. पर रागद्वेष की आग। किसने खड़ी की ? नयी जगी हुई इच्छा ने । तब तुम्हे स्वभावतः पूछने को मन होगा कि
प्र० तो क्या प्रभुदर्शन के बीच कोई आड़ा खड़ा हो जाय उसके दूर होने की इच्छा नहीं करना ? और यदि इच्छा न करें तो करना क्या ?
उ० परन्तु यहाँ यह तो देखो कि ऐसी इच्छा करने के बाद चित्त की परिस्थिती कैसी हो जाती है? भले इच्छा अच्छी हो कि 'बीचमें खड़ा हुआ हट जाय तो प्रभु के दर्शन अच्छी तरह हों' परन्तु यह देखो कि
(१) इस इच्छा के पीछे मन में शांति रहती है या उबाल आता है ?
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(२) सामनेवाले का हट जाना क्या तुम्हारे हाथ में है ?
(३) तुम चाहते हो कि 'वह सरक जाय' परन्तु यदि वह नहीं सरकता तो तब तक मन दर्शन में रहता है या कषाय में ? और
(४) ऐसे केवल बाह्य से अर्थात चर्मचक्षुओ से ही दर्शन करने के संतोष में कुछ अन्तर में उतारा जा सकेगा ?
क्यों व्यर्थ परेशान होते हो ? जीवने ऐसे कोरे बाह्य दर्शन तो इस जन्म में भी बहुत किये और अनन्त काल में अनन्त बार किये परन्तु अब भी वह स्थिति कहाँ उपस्थित हुई है कि प्रभु के बहुत दर्शनों से अब प्रभु को देखने में ऐसा आनन्द मिलता है जैसा रूप सुन्दरियों के मुख या बाल-बच्चों के मुख या स्नेहीजनों के मुख देखने में नहीं मिलता ?
ऐसा कहाँ है कि हृदय में से स्नेहीजनों के मुँह देखने का रस अदृश्य हो गया हो और वीतराग की मुद्रा देखने का ही अखूट रस उपस्थित हो गया हो ?
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