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________________ वह निषेध पुण्य-पापाधीन सुख-दुःख के सम्बन्ध में है । अर्थात् वैसे सुख-दुःख मोक्ष में नहीं होते हैं; किन्तु यह निषेध नित्य सहज सुख के सम्बन्ध में नहीं। 'जरामर्यं वा अग्निहोत्रं' का हउसमें 'वा' शब्द सूचित करता है कि स्वर्गार्थी वैसा करे अथवा मोक्षार्थी वैसा न करें । सभी के लिए विधान होता तो 'वा' नहीं कहते । सारांश, मोक्ष है, और वह अनन्त ज्ञानमय, अनन्त सुखमय है । मुक्तात्मा सदा के लिए उपर लोकान्त में स्थिर होती है । प्रभु के इस प्रकार समझाने से प्रभास ब्राह्मण शंका रहित बने, और अपने ३०० विद्याथियों के साथ दीक्षा लेकर प्रभु के शिष्य बनें । - ग्यारहों ही दीक्षित विप्र मुनि फिर वही भगवान को वंदना कर विनयपूर्वक 'भयवं' ! किं तत्तं ?' – 'भगवन् ! तत्त्व क्या है ?' ऐसा प्रश्न तीन बार पूछते हैं, और सुरासुरेन्द्र पूजित जगद्गुरु श्री महावीर परमात्मा ने एक एक बार के प्रश्न के उत्तर में क्रमशः 'उप्पन्ने इ वा' 'विगमे इ वा' 'धुवे इ वा' 'जगत उत्पन्न होता है, नष्ट होता है, ध्रुव रहता है' ऐसे उत्तर दिये । इन पर चिंतन करने में (i) प्रभु के श्रीमुख से उच्चारित ये उत्तर, (ii) अपने पूर्वभव में उपार्जित गणधर नाम कर्म के पुण्य का उदय, (iii) औत्पातिकी आदि बुद्धि, इत्यादि विशिष्ट कारण आ मिलने से ज्ञानावरण कर्म का भारी क्षयोपशम हुआ, और वहीं द्वादशांगी आगम तथा तदन्तर्गत चौदह पूर्वो की रचना की। प्रभु ने इस पर सत्यता की और अन्य को पढाने की मुद्रिका अंकित करते हुए वासक्षेप किया । इस प्रकार से ग्यारहों ही गणधर महर्षि बने । ___ आत्मा-कर्म-पंचभूत-परलोक-बंध-मोक्ष आदि तत्त्व समझ कर इनका ज्ञान आत्मसात् करें व निजी अविनाशी आत्मा को बंधन-मुक्त करने का ही मुख्य पुरुषार्थ सभी करे-इसी शुभेच्छा के साथ इस लेख में मतिमंदतादि कारणों से जिनाज्ञा-विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो उसके लिए मिच्छा मि दुक्कडं । पू. गुरुदेव सिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेव श्री विजयप्रेमसुरीश्वरजी के शिष्याणु भानुविजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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