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उत्सुकता अरति का प्रतिकार मात्र है । जीमने के लिए बैठते ही महान् आपत्ति के समाचार आते ही पकवान्न खाने की उत्सुकता - अरति उड़ जाती है, तो वहाँ पकवान्न भी सुखरूप नहीं लगता । और
(२) दुःख प्रतिकार भी कामचलाउ होने से थोड़े समय के पश्चात पुनः नवीन उत्सुकता-अरति जाग्रत् होती है । उसे मिटाने के लिए फिर नई बेगार करनी पड़ती है और इस प्रकार बेगार चलती रहती है । एवं
(३) संसार-सुख सांयोगिक है, देह - इन्द्रिय-विषयादि पर के सापेक्ष है, पर का संयोग बना रहे तो सुख और संयोगमात्र विनश्वर है, इसलिए इसके संयोग की चिन्ता बनी रहती है | अतः ऐसा चिंता-मिश्रित सुख यह दुःखरूप ही है ।
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अन्य प्रकार से भी ( ४ ) संसार - सुख इसलिए दुःख रूप है कि इसका परिणाम अशुभ कर्मबंध, दुर्गति-भ्रमण, और महात्रास विडम्बना है ! सुख के भ्रम में जैसे जैसे जीव विषयसंग करता रहता है, वैसे वैसे उसकी क्षुधा बढती जाती है, और इसके पीछे वह महाशुद्धि और पापारंभ करके भावी महा दुःखों और पाप भवों को निमंत्रित करता है। ऐसे सुख को सुख कहना विषमिश्रित लड्ड को सुखरूप मानने के तुल्य है
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( १२ ) इस प्रकार संसार - सुख उपचरित - औपचारिक होने से कहीं भी निरूपचरित सुख का अस्तित्व होना चाहिये । संसार सुखसांयोगिक पराधीन होने से असांयोगिक-स्वाधीन सुख भी कहीं होना चाहिये । मूल के बिना प्रतिकृति नहीं; मुख्य वस्तु के बिना गौण औपचारिक वस्तु नहीं । सच्चा सिंह है तो किसी व्यक्ति को उपचार से सिंह कहते हैं ।
प्रश्न - मोक्ष में किसी प्रकार के विषयसंयोग नहीं, तो सुख क्या ?
उत्तर - मिठाई, लड्डू दो की ही भूख होने पर भी चार खा लिए तो इष्ट विषयसंयोग बढ़ने पर भी सुख नहीं बढ़ता, उल्टा दुःख का अनुभव होता है, अतः विषयसंयोग और सुख की व्याप्ति कहां रही ? इसके विपरित, संयोगों से मुक्त मुनि यहाँ भी महान् सुख का अनुभव करता है । तो सर्व कर्म- संयोग नष्ट होने पर अनन्त सुख का योग क्यों न बने ?
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(१३) सुख ज्ञान की भाँति आत्म-स्वभाव है, अतः ज्ञानावरण का क्षय होने पर अनन्त ज्ञान प्रगट होता है । इसी तरह वेदनीय कर्म का क्षय होने पर अनन्त सुख प्रकट हो सकता है । वह सुख शातादि की भाँति नया - उत्पन्न नहीं किन्तु प्रकटीकृत आत्म-स्वभावरूप है, अतः नित्य है ।
'अशरीरं' 'वा वसन्तं... ' वेद- पंक्ति में प्रियाप्रिय का स्पर्श न करने का कहा
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