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होता है, परन्तु जीव तो जीवत्व रूप से विद्यमान रहता है, और वह अब मुक्तिपर्याय वाला बन जाता है।
(४) मुक्त जीव विनाशी नहीं है, क्योंकि विकार-रहित है, जैसे आकाश । प्रश्न - तत्काल नहीं, परन्तु कालान्तर में नष्ट हो ऐसा बन सके न ?
(५) उत्तर - नहीं, आत्मा आकाश की भाँति अमूर्त द्रव्य होने से नित्य है। फिर भी आकाश की भाँति सर्वगत नहीं। क्योंकि ज्ञान सुखादि गुणों शरीर में ही उपलब्ध है, तो आत्मा शरीर व्यापी ही होनी चाहिए यह सिद्ध किया हुआ है। इसी तरह वह सदा अबद्ध-अमुक्त नहीं, क्योंकि पुण्य पाप कर्म से बद्ध होती है; अन्यथा दान-हिंसादि क्रीया का फल क्या? इसी प्रकार कर्म वियोग से मुक्त भी होता है। बाकी आत्मा मोक्ष में भी एकान्त नित्य ही क्यों ? कथंचिद् नित्य है, क्योंकि इसका ज्ञान परिणाम ज्ञेय-परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित होते रहने से वह उस रूप में अनित्य भी है।
(६) प्रश्न - संसार के कारणभूत राग-द्वेष तो अनादि है इनका संपूर्ण नाश किस प्रकार हो सके ? जैसे ज्ञान-चैतन्य अनादि है तो इसका सम्पूर्ण नाश नहीं हो सकता, ऐसा तो तुम भी कहते हो ।
उत्तर - जगत में धर्म दो प्रकार के होते हैं - १. सहभू (स्वभावभूत) व २. उपाधि (निमित्त) प्रयोज्य । (१) सूर्य में प्रकाश सहभू है, तो इसका नाश कभी नहीं होता । बादल के बढ़ने से यह आवृत हो इतना ही, बाकी अत्यन्त गाढ़ बादल आ जाय तो भी थोड़ी-बहुत प्रभा तो खुली रहती ही है, जिससे रात के अपेक्षा विशेषता लगने से दिन होने का पता चलता है। आत्मा में ज्ञान-चैतन्य ऐसा स्वभावभूत धर्म है। (२) स्फटिक में कभी कभी लाल-पीलापन दिखाई देता है वह उपाधि-प्रयोज्य है, व उसके पीछे लगी हुई लाल-पीली वस्तुस्वरूप उपाधि के कारण है। निमित्त हटते ही लेशमात्र लाल-पीलापन नहीं रहता। आत्मा में राग-द्वेष इस प्रकार के उपाधिप्रयोज्य धर्म है। कर्मरूपी उपाधि के कारण ही वे झलकते हैं। इसलिए कर्म खिसकते ही उनका लवलेश भी न रहें, यह युक्ति-युक्त है । तब फिर विराग और उपशम भावना बढ़ते बढ़ते यदि राग-द्वेष घट जाएँ, तो विराग-उपशम की पराकाष्ठा पर पहुंचने पर राग-द्वेष का सम्पूर्ण अभाव क्यों न हो ?
(७) प्रश्न - एक बार रागादि का अभाव तो हो गया, परन्तु पुनः रागादि विकार न हों, इसमें क्या प्रमाण ?
उत्तर - वस्तु में विकार दो प्रकार के होते हैं, १. निवर्त्य (पीछे मिट जाय ऐसा) विकार, २. अनिवर्त्य (होने के बाद हटे ही नहीं ऐसा) विकार । (१) सुवर्ण
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