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________________ मोक्ष न होने का विश्वास इसलिये हुआ कि (१) दीपक अन्त में बुझ जाता है, इस प्रकार आत्मा सर्वथा नष्ट हो जाती है फिर मोक्ष किसका ? (२) कर्म, संयोग अनादि होने से नष्ट नहीं हो सकते, इसलिए संसाराभाव कैसे ? (३) जीव क्या है ? नारक, तिर्यंच आदि ये ही जीव । इनके नाश पर तो जीवनाश ही माना जाय, फिर मोक्ष क्या ? परन्तु 'मोक्ष है' इसके प्रमाण ये है (१) दीपक बुझ गया फिर भी उसकी कज्जल के सूक्ष्म तामस पुद्गल वातावरण में विद्यमान है और वे घ्राणेन्द्रिय से अनुभूत होते हैं, अतः सर्वनाश नहीं। इसी तरह जीव का संसार समाप्त होने के पश्चात् सर्वनाश नहीं । पवन से कज्जल उड़ गई या बादल बिखर गए, इससे इसके पुद्गल थोड़े ही सर्वथा नष्ट हो जाते हैं? पुदगल के परिणाम विचित्र होते हैं। अभी एक इन्द्रिय से ग्राह्य हो, वही थोड़ी देर में रुपान्तरित होते ही अन्य इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य बन जाता है। नमक आँख द्वारा दिखाई देने वाला होते हुए भी पानी में घुलने के पश्चात् आँख से नहीं दिखता है; फिर भी इसका यह परिणामान्तर रसना द्वारा ग्राह्य बन जाता है। इस प्रकार मोक्ष होने पर जीव का मात्र परिणामान्तर होता है, सर्वथा नाश नहीं, और वह केवलज्ञान से दिखाई देता है। (२) स्वर्ण और मिट्टी का पूर्व सम्बन्ध होते हुए भी क्षार-पाकादि उपाय से वियोग हो कर शुद्ध स्वर्ण बनता है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि उपायों से जीव शुद्ध मुक्त हो सकता है। (३) नारक तिर्यंच आदि तो जीव के पर्याय मात्र हैं; जैसे सुवर्ण के अंगूठी, कंगन आदि, क्योंकि जीव वे वे अवस्थाएं धारण करता है । अंगूठी, कंगन आदि नष्ट होने पर सुवर्ण-नष्ट नहीं होता, इसी प्रकार नारकादी पर्याय नष्ट होने से जीव भी नष्ट नहीं होता। प्रश्न - कर्म से तो संसारी जीव था, कर्मनाश होने पर उस का नाश क्यों नहीं? कारणनाश में कार्यनाश भी होता है, जैसे कि पत्र पर रेखाएं नष्ट होने पर चित्र नष्ट हो जाता है। उत्तर - जीव कर्म से सर्जित नहीं है जिससे कि कर्मनाश होने से इसका नाश हो । कर्म तो आवरण रूप है, उपाधिरूप है । इसलिए जैसे बादल का नाश होने पर सूर्य का नाश नहीं होता; एवं घट के नाश के साथ आकाश का नाश नहीं होता, इसी प्रकार कर्म के नाश से जीव का भी नाश नहीं होता । इतना अवश्य है कि कर्म का नाश होने पर कर्मजन्य नारकत्व, तिर्यक्त्व आदि संसार पर्याय का नाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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