________________
होते हैं स्थूल नहीं होते, इसी प्रकार परमाणु स्वरूप भी नहीं होते । ये जैसे तेल चुपड़े हुए शरीर पर रज चिपकती है, उस तरह राग द्वेष से चिकनी बनी हुई आत्मा पर मध्य के शुद्ध स्वच्छ आठ रूचक-प्रदेश के अतिरिक्त सर्व आत्म-प्रदेश के साथ इसी के अवगाहित आकाश में रहे हुए कर्म-पुद्गल चिपकते हैं । आत्मा और कर्म दोनों की ऐसी परस्पर योग्यता है कि चिपकते हुए कर्म को आश्रयभूत आत्मा अपने शुभ या अशुभ परिणाम के अनुसार शुभ या अशुभ कर देती है। (साथ ही कर्म की प्रकृतिस्थिति-रस-प्रदेश भी निश्चित कर देती है ।) आश्रय-भेद से कार्य-भेद होता है । उदाहरणार्थ वही पानी गाय में दूध के रूप में, और सर्प में विष के रूप में परिणत होता दिखाई देता है । अथवा एक ही प्रकार का भी आहार पाचन-शक्ति के अनुसार रस रुधिर आदि धातुओं और मलमूत्र कफादि में परिणत होता है। वैसे ही कर्म पुद्गलों को शुभ भाव शुभरूप में व अशुभ भाव स्वतन्त्र अशुभ रूप में बना देता है।
शुभ पुण्यकर्म तत्त्वार्थ शास्त्र के अनुसार समकितमोहनीय-हास्य रति-पुंवेद तथा शाता वेदनीय, शुभ आयुष्य-नाम-गोत्र की कुल ४६ कर्म प्रकृतियां हैं। शेष सभी पाप कर्मरूप है। कर्मग्रन्थमतानुसार समकितमोहनीय-हास्य-रति-पंवेद ये चार पाप कर्मरूप है, क्योंकि ये जीव को विपर्यास करवाते हैं । इनमें समकित-मोह शंकादि अतिचार लगाता है और मूल में तो मिथ्यात्व कर्म के दलिक (पुद्गलस्कन्ध) है अत: अशुभकर्म रूप है।
इस प्रकार समझाने से अचलभ्राता को सच्चा ज्ञान हुआ, और उन्होंने भी प्रभु के पास अपने ३०० के परिवार के साथ दिक्षा ली ।
* दसवें गणधर - मेतार्य *
क्या परलोक है ? अब दसवें मेतार्य नाम वाले ब्राह्मण से प्रभु कहते हैं :
'विज्ञानघन एवं...न प्रेत्यसंज्ञास्ति,' 'अग्नि होत्रं ... स्वर्ग कामः' आदि परस्पर विरुद्ध वेद-वचनों से तुम्हें शंका हुई कि परलोक जैसी कोई वस्तु है क्या ? परलोक का न होना इसलिए लगा कि -
(१) वस्तु की शुक्लता की भाँति चैतन्य भूतपिंड का है। वस्त्र-नाश पर शुक्लता के नाश की भांती भूतिपंड के नाश पर चैतन्य स्वयं नष्ट हो जाता है; तो
܀ 99 ܀
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org