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सदृश ही हों, असदृश नहीं, यह कैसे ? (ii) भवोच्छेद क्यों नहीं ? (iii) निश्चित आकार क्यों ? (iv) एवं भव नित्य सत् हो या नित्य असत् हो, पर कदाचित् सत् क्यों ? (३) स्वभावरूप से वस्तु - धर्म कहते हो तो यह आया कि 'भव वस्तुधर्म से भवांतर समान करता है तब इस भव का ऐसा कौन सा धर्म है जो भवांतर में कारणभूत हो ?' मूर्त अथवा अमूर्त ? अमूर्त नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसे अमूर्त का कार्य मूर्त शरीर सुख-दुःखादि नहीं बन सकता । मूर्त धर्म कहते हो तो 'वह सदा समान ही हो', यह नियम क्यों, कि जिससे यह समान ही भवांतर करे ऐसा कह सकें ?
( ८ ) वस्तु- स्थिति यह है कि मात्र आत्मा का परभव ही क्या, त्रिभुवन में वस्तुमात्र कई पूर्व पर्याय से तदवस्थ रहती है तों कई पूर्व पर्याय छोड़कर उत्तरोत्तर पर्याय रूप से उत्पन्न होती है । ये उत्तर पर्याय समान ही हों ऐसा कहां है ? तो समान परभव का आग्रह क्यों ? वैसे तो इसी भव में भी कई सत्त्व - आत्मत्वादि समान पर्याय होते है, वैसे बचपन, जवानी आदि असमान भी बनते है, तो वहाँ भी अकेले समान का ही आग्रह क्यों नहीं ?
प्रश्न
उत्तर
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हम समानता मनुष्यत्व, पशुत्व आदि ही समान पर्याय तक कहते हैं ? ध्यान में रहें कि पर्याय का बनना कारण सापेक्ष है, और प्रस्तुत में कारणभूत कर्म - विचित्र भी है, अतः तज्जन्य पर्याय असमान भी होगा । अन्यथा मात्र मनुष्य ही क्यों ? यहां जो दरिद्र वह परभव में दरिद्र ही होगा । और श्रीमन्त श्रीमन्त ही; जो रोगी हो वह रोगी ही, और नीच कुल वाला नीच कुल में ही हो । 'हां, ऐसा ही है' ऐसा नहीं कह सकते; अन्यथा तप-दानादि क्रिया निष्फल जाय ! प्रत्यक्ष भव में भी रोगी निरोगी बनता है, दरिद्र श्रीमंत भी बनता है, यहाँ भी यदि असमान हो तो परभव में क्यों असमान न हो ?
( ९ ) परभव समान ही हो तो 'शृंगालो वै एष.....' 'अग्निहोत्रं स्वर्गकामः ।' आदि वेदवचन निरर्थकसिद्ध होगें । अतः 'पुरुषो वै पुरुषत्वम्...' का भाव यह है कि जो व्यक्ति स्वभाव से भद्र, विनीत, दयालु हो, वह पुन:मनुष्यायु को बांध कर मनुष्य हो सकता है ।
भगवान की इस समझाईश से सुधर्मा भी नि:शंक हो कर अपने ५०० विद्यार्थियों के परिवार के साथ प्रभु के शिष्य बनें ।
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