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किसी से नहीं,' तो यह तो परस्पर विरोधी भाषण है । अगर कहें 'यह तो परमत की अपेक्षा सापेक्ष है' तो पर और परमत तो मान ही लिया ! वे ही सत् ठहरेंगे,
शून्य नहीं ।
(२) 'बीच की अंगुली बड़ी, पहली छोटी' इस प्रकार एक साथ प्रथम तो ह्रस्व-दीर्घ की बुद्धि करना, और फिर कहना कि 'बड़ी छोटी वस्तु सापेक्ष होने से असिद्ध है, असत् है, ' यह असंगत है ।
(३) दरअसल वस्तु में सत्त्व सापेक्ष ही नहीं; क्योंकि सत्त्व अर्थक्रियाकारित्व रूप हैं। अर्थ = क्रिया = पदार्थ की उत्पत्ति - क्रिया, अर्थात् कार्योत्पत्ति । यदि ह्रस्व दीर्घ आदि पदार्थ स्वकीय ज्ञानरूप कार्य कराते हैं तो वे अर्थक्रिया - कारी होने से सत् है । यदि सर्वथा असत् हो तो ज्ञानात्मक कार्य नहीं करवा सकते ।
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(४) छोटी अंगुली पहली कही जाती है वह मध्य की अपेक्षा, असत् आकाशकुसुम की अपेक्षा से नहीं । अथवा दीर्घ की अपेक्षा से पहली अंगुली ह्रस्व है, किन्तु आकाशकुसुम हृस्व नहीं । इससे सूचित होता है कि मध्य व प्रथम अंगुली सत् हैं । इतना ही नहीं, परन्तु
(५) वस्तु अनंत धर्मात्मक होने से उसमें ह्रस्वत्वादि भी सत् हैं, जो मात्र तद्नुकूल सहकारी मिलने पर अभिव्यक्त होते हैं । यदि हस्वत्व सत् न हो कर भी अपेक्षामात्र से ऐसा ज्ञान होता हो तो बीच की दीर्घ में ही स्वापेक्षया ह्रस्वत्व का ज्ञान क्यों नहीं होता है ? तब यही कहना पड़ता है कि इसमें स्वापेक्षया हस्वत्व है ही नहीं, तो उसका ज्ञान कहां से हो ?' अर्थात् ह्रस्वत्व सत् है और वह स्वापेक्षया से नहीं किन्तु अन्य दीर्घ वस्तु की अपेक्षा से यह सिद्ध होगा ।
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(६) पहले ही 'हस्व-दीर्घ का सापेक्ष ज्ञान होता है; तो उन दोनों का ज्ञान क्या एक साथ होता है ? अथवा क्रमिक ? एक साथ कहते हो तो परस्पर अपेक्षा कहाँ रही ? अपेक्षा का मतलब तो यह है कि जिसकी अपेक्षा हो वह पहले आना चाहिये । यहाँ तो एक साथ ज्ञान होने की बात है तो अपेक्षा कहाँ रही ? यदि कहते हो कि क्रमशः होता है, तो दो में प्रथम जो ह्रस्व का अथवा दीर्घ का ज्ञान होगा वह तो अन्य दीर्घ की अथवा हस्व की अपेक्षा बिना ही हुआ गिना जायगा । इससे तो यह वस्तु अपेक्षा से नहीं किन्तु स्वतः सिद्ध रही ! अनुभव भी ऐसा है कि चक्षु-संयोगादि सामग्री रहने पर घड़े आदि वस्तु का वैयक्तीक रूप से स्वतः ज्ञान होता है । यह ज्ञान पर की अपेक्षा बिना ही होने का अनुभव सिद्ध है। बालक को जन्म लेते ही प्रथम ज्ञान ऐसा बिना अपेक्षा के ही होगा । अतः सिद्धि अर्थात् ज्ञान, यह सापेक्ष ही होने का नियम गलत है| अन्यथा परस्पर हस्व-दीर्घ न हो, परन्तु तुल्य ही हो उन बिचारे का तो ज्ञान ही कैसे बने ? दो आँखों की भाँति इन दो में परस्पर क्या अपेक्षा ?
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