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उत्तर - इसका अर्थ तो यह हुआ कि 'भूत अकेला हो तब, चैतन्य का अन्य कोई आवरण तो है नहीं, अर्थात् स्वयं ही आवरण का रूप है, जिससे चैतन्य दीखता नहीं; और समूह में पुनः वही भूत व्यक्ति स्वयं व्यंजक अर्थात् प्रकट करने वाला बनता है।' किन्तु यह तो विरूद्ध है। जो आवरण, वही अभिव्यंजक (प्रकट करने वाला) ! यह कैसे हो सकता है ?
प्रश्न - नहीं, ऐसा नहीं है, असंयुक्त भूतव्यक्ति तो आवरणरूप है, और अभिव्यंजक के रूप में भूतों का विशिष्ट संयोग है।
उत्तर - भूतों का विशिष्ट संयोग तो शव में भी विद्यमान है, पर इनमें चैतन्य प्रकट नहीं है; इसका कारण ? यदि वायु या गर्मी के कारण कहो, तो ये तो इसमें भरी जा सकती है।
प्रश्न - नहीं, प्राण, उदान आदि वायु कहां से पैदा करोगे? शव में ये नहीं अतः चैतन्य नहीं ।
उत्तर - इसका अर्थ तो यह है कि 'प्राणादि वायु को चैतन्य-ज्ञानादि के नियामक कहते हो।' जब कि वस्तुस्थिति विपरीत है। चैतन्य स्वयं प्राणादि का नियमन करता है । हम देखते है कि प्राणायाम करने वाले स्वेच्छानुसार प्राणों की पूर्ति व रेचनादि करते है। सारांश यह है कि मर्दे में चैतन्य नहीं, यह सूचित करता है कि भूत का यह सहज गुण नहीं है।
__प्रश्न - तो चैतन्य को माता के चैतन्य से उत्पन्न कहें, वह भी ऐसा कि मृत्यु तक ही पहुँचे । अब क्या हानि है ?
उत्तर - इसमें बड़ी आपत्ति यह है कि मातृ-चैतन्य के संस्कार-वासनाएँ पुत्रचैतन्य में क्यों नहीं आते ? माता क्रोधिनी और पुत्र शांत, या इससे विपरीत क्यों होता है ? शायद कहें कि थोडी विरासत मिलती है तो माता के शरीर में उत्पन्न होने वाली जूं-लीख में यह क्यों नहीं ? यदि कहें शुक्र-रुधिर के संयोग से उत्पन्न हो उसी से चैतन्य उत्पन्न होता है, तो फिर उसमें अल्पांश-स्थायी ही चैतन्य कहां से आया ?
यदि कहें कि 'मृत्यु तक पहुँचे ऐसा ही चैतन्य माता उत्पन्न करती है' तो प्रश्न यह है कि मृत्यु ही क्या वस्तु है ? अगर चैतन्य का नाश कहते हों, इसका मतलब यह आया कि 'चैतन्य ऐसा पैदा हुआ है कि जो नाश तक रहें ।' लेकिन प्रश्न तो यह है कि चैतन्य का नाश किस कारण से ? वात-पित्तादि की विषमता से कहो, तो वह ठीक नहीं, क्यों की मृत्यु के पश्चात् विषमता हट जाने से पुनर्जीवन
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