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________________ से बुलाया और संशय कहा, 'हे गौतम वायुभूति ! तुम्हारे मन में संशय है कि 'यह शरीर ही जीव है ? अथवा जीव जैसी कोई भिन्न वस्तु हैं ?' । 'विज्ञानघन एव' इस वेद पंक्ति से तुम्हें लगा कि चैतन्य तो पृथ्वी आदि पांच भूत में से उठता है और इनके नाश से पुन: नष्ट हो जाता है । इससे सूचित होता है कि 'चैतन्य' वस्तु तो है परन्तु इन पांच भूत का ही धर्म, यानी देह ही चेतन आत्मा दूसरी और "न ह वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोरपहतिरस्ति; अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" ऐसी वेद पंक्ति मिली ! इससे तो यह जानने को मिला कि शरीरधारी को प्रियाप्रिय यानी सुख-दुःख का अन्त नहीं, और शरीर रहित बने हुओं को सुख-दुःख स्पर्श नहीं करते'। यह तो स्पष्ट शरीरवासी किसी भिन्न आत्मा का विधान करती है, - ऐसा लगा । अत: आमने सामने विरोधी वस्तु मिलने से शंका उत्पन्न हुई ! शरीर-भूतसमुदाय यही जीव है इसके समर्थन में बहार देखने को मिला कि दूब के फूल, गुड, पानी आदि मदिरा बनाने की प्रत्येक वस्तु में मद्यशक्ति दिखाई नहीं देती और इन सबके समुदाय में दिखती है, इससे पता चलता है कि मद्यशक्ति किसी भिन्न व्यक्ति की नहीं परन्तु एक समुदाय का धर्ममात्र है, कोई भिन्नवस्तु नहीं है। इस प्रकार चेतन-चैतन्य भूत-समुदाय का धर्ममात्र है, किन्तु भिन्न वस्तु नहीं । 'देह से जीव भिन्न' - इसके तर्क : (१) परन्तु यहाँ समझने योग्य यह है कि जो प्रत्येक का धर्म नहीं वह समुदाय का धर्म कैसे बन सकता है ? रेती के एक एक कण में तेल नहीं, तो रेती एक लाख मन भी पीसने से एक तोला मात्र भी तेल निकलता है क्या ? जब कि प्रत्येक तिल में तेल है तो तिल समूह में से भी तेल निकलता है। इसी तरह मदिरा में जिस भ्रान्ति, मधुरता, एवं शीतलता का अनुभव होता है वह किसी न किसी अंश में दूब के फूल, गुड़ और पानी में क्रमशः विद्यमान है तभी इनका स्पष्ट अनुभव इनके मिश्रित समुदाय में दीखता है। अन्यथा चाहे जो वस्तुएँ मिश्रित करने से मदिरा बननी चाहिये। अत: कहो कि प्रत्येक में हो वही समुदाय में आती है। प्रश्न - तो प्रत्येक भूत में चैतन्य का अंश मानेंगे ? उत्तर - ऐसा हो तो फिर प्रत्येक में चैतन्य दीखता क्यों नहीं ? प्रश्न - आवृत है अतः नहीं दीखता । पंच भूत एकत्रित होने पर यह व्यक्त होता है। :४४ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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