SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ही जन्म होता है । यहाँ 'विज्ञानघन ही' इसमें 'ही' कहने से आत्मा के अन्य सुखादि स्वरूपों का निषेध किया; अर्थात् भूत से आत्मा में ज्ञान स्वरूप प्रकट होता है परन्तु सुख स्वरूप नहीं, ऐसा सिद्ध हुआ । इस प्रकार इन्द्रभूति गौतम का संदेह निवारण हो जाने से उन्होंने देखा कि इस जगत में ऐसे सर्वज्ञ जैसा शरण और कहाँ मिले ? साथ ही अकिंचित्कर दूसरों का आधार लेने से भी अंत में वे क्या काम आए ? फिर मेरी आत्मा का ऐसा स्पष्ट दोषरहित स्वरूप है, तो अब यह पता चलते ही इसकी रक्षा सर्वप्रथम कर लेनी चाहिये अतः 'मुझे वीर प्रभु का शरण हो,' ऐसा निश्चित करके अपने ५०० विद्यार्थियों के साथ प्रभु के पास वहीं का वहीं उन्होंने चारित्र अंगीकार किया, और त्याग कर वे अणगार मुनि बने । गृहवास का * द्वितीय गणधर 'कर्म संशय' अब दूसरे गणधर की चर्चा आरम्भ होती है । इन्द्रभूति की दीक्षा के समाचार सुनते ही अग्निभूति चौंक उठे, ' है ? यह क्या ? मेरा भाई जो कभी किसी से हारता नहीं, वही विपक्षी वादी के आजन्म शरणागत हो गया !! जरूर कुछ छल हुआ है; तो मैं अब पहिले से ही समझ बूझ कर वहाँ जाऊँ, और वादी की जाल में न फँस कर उसको निरुत्तर कर के भाई को छुडवा लाऊँ, ' ऐसा सोच कर अपने ५०० विद्यार्थी - समुदाय के साथ आप प्रभु के पास आए । - इन्हें कहाँ पता था कि 'अकेले भाई ही क्या, वहाँ तो बडे अवधिज्ञानी इन्द्र भी मोहित हो जाते हैं ऐसे विश्व- श्रेष्ठ तीर्थंकरपद पर ऐसे वीतराग- सर्वज्ञता पद पर भगवान आरूढ़ है आप भी यहाँ आएँ, इतनी ही देर है । प्रभु आपको नहीं, आपके शत्रु मोह को ठगने के लिए यहाँ पधारे हैं ।' अग्निभूति प्रभु के समवसरण में आए और इन्द्रभूति जी की भाँति प्रभु ने इन्हें संबोधित किया और मन का संशय कहा कि 'तुम्हें इस बात की शंका है कि कर्म जैसी वस्तु जगत में होगी क्या ? परन्तु वेद वाक्य का अर्थ तुमने बराबर समझा सोचा नहीं ?" बस भाई की भाँति अग्निभूति भी ठंडे हो गए। सही लगा कि 'ये सर्वज्ञ है, अतः अब तो बराबर समझ लूं ।' विनयपूर्वक प्रभु के सम्मुख अंजलि बांध कर खड़े रहे । अग्निभूति को प्रभु ने इस प्रकार समझाना शुरू किया । Jain Education International २७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy