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से भी प्रियतर कौन है ? उत्तर मिलता है - आत्मा । 'अपने न यह देखना न दुःखी होना; चलो मरें (अर्थात् शरीर त्याग दें)' ऐसा जो बहू सोचती है इसमें 'अपने' अर्थात् कौन ? आत्मा ही न, जो नित्य प्रति के क्लेश से बचने के लिए शरीर को जाने दे ?
(२३) दूसरे का स्नेह भाव-आदर, सद्भाव प्रिय लगता है, झगड़े - टटे, क्लेश, ऊँचा मन आदि प्रिय नहीं लगते । किसे? आत्मा को । शरीर का तो कोई लाभालाभ होता नहीं। किसी का शरीर यानी मुंह हंसता हुआ देखते हैं फिर भी कहते हैं, 'यह दंभी है, भीतर से अप्रसन्न है' यह कैसे ? शरीर में 'भीतर से' अर्थात् क्या ? 'आत्मा के' तभी कहा जाय कि वस्तुतः यह अप्रसन्न है, मुंह हंसता हुआ बताता है इतना ही।
(२४) वर्तमान काल में किसी जीव को पूर्व जन्म का स्मरण हुआ मालूम पड़ता है। वह जीव कहता है कि 'पूर्व भव में मैं उस स्थान पर था, मेरी यह दुकान
और मेरे ये पुत्रादि थे। उनमें से अभी भी ये मौजूद हैं । इसमें मैंने पहिले ऐसा ऐसा व्यवहार किया' -यह सब मिलता भी आता है तो यह 'मैं' 'मेरे' 'मैंने' आदि कौन ? आत्मा ही कहना पड़ेगा कि जो यहाँ पूर्व भव से आया उसका स्मरण करता है । यहाँ का शरीर पूर्व भव का नहीं । उपसंहार :
आत्म साधक अनुमान का संक्षिप्त वर्गीकरण १. प्रवृत्ति-निवृत्ति
१३. युगल-पुत्र की विचित्र रुचि आदि २. भूत-प्रवेश
१४. योग-उपयोग लेश्या संज्ञादि भाव ३. काया-महल का कर्ता १५. ज्ञानादि गुणाधार ४. देह संचालक-भोक्ता १६. संदेह ५. इन्द्रिय-करण प्रयोक्ता १७. भ्रम ६. गात्र-आदेशक
१८. प्रतिपक्ष ७. गात्र प्रवृत्ति-नियंत्रक १९. निषेध ८. इन्द्रिय-विवाद पंच २०. शुद्ध पद ९. काय-ममत्व
२१. पर्याय १०. मानसिक सुख-दु:ख वेत्ता २२. अंतिम प्रिय ११. माता-पिता से विलक्षण गुण २३. प्रिय-अप्रिय १२. इष्टानिष्ट हेतु-ज्ञान
२४. जाति स्मरण आत्मा अर्थात् क्या ? इतना भूलें नहीं कि आत्मा की सिद्धि जानने के पश्चात्
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