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64 : आनंदघन
"मेरे तो प्रभु गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई रे" तो आनंदघन के 'ऋषभ जिन स्तवन' में वही प्रभुप्रीति की प्रतिध्वनि गूंज उठती हैं :
"ऋषभ जिणेसर प्रीतम माहरा, और न चाहुं रे कंत ।" 'मुखडानी माया' लगने के बाद 'प्रीत पूरवनी' जगती है, फिर तो वह प्रियतम . जैसे रखे वैसे ही रहना है । मीरां कहती हैं कि 'राम राख्ने तेम रहिए' क्योंकि वह तो उसकी 'चिठ्ठी नी चाकर' हैं | मीरां आर्जवभरे स्वर में कहती हैं उसे तो यह चाकरी ही प्रिय हैं और इस चाकरी में उसे भगवान का स्मरण ही इच्छित है । निर्वाह-खर्च में वह साँवलिया के दर्शन ही माँगती है और इसके अलावा गिरधारी की कुछ अधिक (उत्कट) भक्ति चाहती हैं । तभी वह कहती हैं कि 'हरि मने पार उतार ।' उसके लिए 'हुं तने नमी नमी ने विनंती (मैं तुम्हे झुक-झुककर बिनती) करती हूँ ।'
मीरां भक्त थीं तो आनंदघन मर्मज्ञ संत थे । वे कहते हैं कि मैं तो कुछ भी नहीं जानता, केवल तेरे द्वार पर आकर तेरे गुणों का रटन ही करता हूँ । इस तरह मीरां की भक्ति में मृदुता प्रकट होती है, तो आनंदघन में मस्ती की लहर का अनुभव होता है । वे कहते हैं -
__ “अवधू क्या माँगू गुन हीना, जे गुनगुनन पुवीना,
गाय न जानु बजाय न जानु, न जानुं सुर मेवा ।" ___ मीरां के पदों में जिस तरह अखंड वर की प्राप्ति का आनंद है, उसी तरह से आनंदघन में स्वयं सुहागन बनने की उमंग दृष्टिगत होती है । मीरां जैसे 'प्रेम नी कटारी' (प्रेम की कटारी) से घायल हुई है, वैसे ही आनंदघन प्रेम के रामबाण से बिंधे हुए हैं।
“कहाँ दिखाउं और कू कहाँ समजाउं भोर,
तीर अचूक हैं प्रेम का लागे सो रहे ठोर ।" कवि कहता है कि प्रेम के इस बाण का घाव मैं दूसरे को कैसे दिखाऊँ वैसे भी अन्य कोई उसका स्वरूप कैसे समझ पाएगा ? मीरां की तरह वे भी 'घायल की गत घायल जाने' कहते हैं । उससे भी अधिक आनंदघन कहते है कि यह प्रेम का तीर ऐसा अचूक है कि एक बार चुभ जाये, तो निकलता नहीं है । और यह 'प्रेम सुहागन' नारी अपने प्रियतम के अंगों की सेवा करती है, तब सुंदर रूपक लीला से आनंदघन कहते हैं कि उसके हाथों से भक्ति के रंग की मेंहदी उग निकलती है, अत्यन्त सुखदायक भावरूप अंजन लगा देती है, सहज स्वभाव स्वरूप चूड़ी पहनती है, स्थिरतारूपी कंगन धारण करती है, ध्यान उसको अपनी गोद में बिठाता है, सूरत का सिंदूर उसकी मांग में भरा जाता है, अनासक्ति रुपी जूड़ा बाँधा जाता है, ज्योति का प्रकाश उसके अंतरात्मा के त्रिभुवन में प्रकट होता है और केवलज्ञानरूपी दर्पण हाथ में लेता है । इस पद में कवि ने 'अनुभवरस' से सौभाग्यवती बनी हुई नारी की आनंदसज्जा को रुपक के द्वारा मनोरम ढंग से सजाया है । और अन्तत: दृश्य की उस आनंदमय अवस्था को आलेखित करते हुए कवि कहते हैं :
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