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आनंदघन: कबीर, मीरा और अखा के परिप्रेक्ष्य में : 57 "लाली मेरे लाल की, जित देंखें तित लाल;
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ।” जबकि आनंदघन कहते हैं कि प्रियतम से मिलन आत्मा और परमात्मा के साथ का ऐक्य, फल के चारों तरफ चक्कर लगाते भौरें जैसा नहीं है, बल्कि पुष्प में निहित पराग जैसा है । और जब यह मिलन होता है तब कबीर को 'तेरा सांई तुझमें' का अनुभव होता है । तो आनंदघन के अंतर में 'अनुभवरस की लाली' प्रकट होती है । कवि आनंदघन मनोरम रूपक के द्वारा इस अनुभवलीला का निरूपण करते हुए कहते हैं:
"मनसा प्याला प्रेम मसाला, ब्रह्म अग्नि परजाली; तन भाठी अवटाई पीये कस, जागे अनुभव लाली ।" आशा. 3
कबीर की तरह आनंदघन ने भी 'अवधू' और 'साधू' को सम्बोधित करके अपना उपदेश दिया है । इस तरह से आनंदघन ने कबीर की तरह या रहस्यवादी कवियों की तरह प्रणय की परिभाषा में आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध प्रकट किया है । इसी तरह ‘राम कहो रहिमान कहो' में आनंदघन रहस्यवादी कवि की तरह चैतन्यमय परमतत्त्व के रुप की झाँकी प्रस्तुत करते हैं । कबीर इस शरीर की क्षणभंगुरता बताते हैं । वे देह को कच्चे कुंभ की तरह बताते हैं और मनुष्य उस कच्ची देह और चंचल मन के सहारे सब चिरकाल स्थिर रहनेवाला है ऐसा मानकर गर्व से सीना फुलाकर फिर रहा है । वह माया के मोह में मस्त है । लेकिन कबीर कहते हैं कि उसे ऐसे घूमता-फिरता देखकर महाकाल हँसता रहता है और फिर उसकी हालत कैसी होती है ?
"हम जानें थें खायेंगे बहुत जमीं बहु माल,
ज्यों का त्यों हि रह गया पकरि लै गया काल ।” (हम तो यह मानते थे कि बहुत जमीन-जागीर है, बेशुमार दौलत है, निश्चित होकर, बुढ़ापे में उसका उपभोग करेंगे । परन्तु हुआ क्या ? काल झपट्टा मार कर उड़ गया और सब कुछ ज्यों का त्यों धरा रह गया !) गुजरते हुए काल के सामने कबीर की तरह ही आनंदघन एक सुंदर कल्पना से मनुष्य को जगाते हैं :
"क्या सोवै उठ जाग बाउरै अंजलि जल ज्यूं आयु घटत हैं,
देत पहरिया धरिये धाउ रे । छंद-चंद नागिंद मुनि चले, को राजा पति साह राउ रे ।"
कबीर और आनंदघन दोनों ने जड़-बाह्याचार का विरोध किया उसी तरह वे दोनों पुस्तकीय ज्ञान से प्रभु प्राप्ति के मार्ग के चाहनेवालों का विरोध करते है। शास्त्रज्ञान वह एक दीपक है जब कि आत्मज्ञान तो रत्न है । दीपक के प्रकाश से रत्न की खोज कर सकते हैं, लेकिन दीपक ही रत्न है ऐसा माना नहीं जा सकता । शास्त्रीय ज्ञान से आगे बढ़कर साधक को आत्मज्ञान पाना है । इसीलिए कबीर और आनंदघन कोरे और अनुभवरहित शास्त्रज्ञान की आलोचना करते हैं, ऐसा ही पंडितों के ज्ञान के विषय में भी है । ध्यान से विमुख ऐसे ज्ञानी की हालत का बयान करते हुए
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