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________________ जीवन प्रसिद्ध जैन कवि आनंदघन का पंथ एकलवीर का पंथ था । लोक प्रीति का मोह या गच्छ प्रेम की मर्यादा उनको छू नहीं सकती थी । सत्योपासक के रूप में पड़ने वाले विघ्नों को सहन करने का उनमें आंतरिक साहस था । इतना ही नहीं लीक से हटकर आगे बढ़ने की आत्मशक्ति थी । वे आत्मज्ञान और चित्तसमाधि में लीन होकर अध्यात्म की अनुभूति को एक के बाद एक उन्नत शिखरों को सर करनेवाले मनमौजी साधक थे। उन्होंने संकुचितता की दीवारों और बाह्य आवरणों को दूर कर योग और अध्यात्म के दिव्य प्रदेशों में मुक्त विहार किया था । ऐसे साधक के समय में जैन समाज की जो धार्मिक परिस्थिति थी उसका स्पष्ट और निर्भीक प्रतिबिम्ब उनके स्तवनों में निरूपित हुआ है। अनुश्रुतियों में लिपटा हुआ जीवन आध्यात्मिक अनुभूति की अतल गहराई के पंथ पर चलने वाले व्यक्ति को प्रसिद्धि या ख्याति की परवाह कहाँ से होगी ? अवर्णनीय आत्मानंद की मस्ती में लीन रहकर जीनेवाले योगी को कीर्ति का प्रलोभन किस तरह आकर्षित कर सकता है ? प्रियतम प्रभु के दुर्लभ दर्शन के लिए पल-पल तड़पनेवाला अपने आप को कहाँ से याद रख सकता है ? नाम, प्रसिद्धि, स्थल या काल के सीमित बंधनों को पार करके जहाँ चित्त असीम गहराई में विहार करता है वहाँ ख्याति या कीर्ति की लुभावनी बातों के लिए अवकाश कहाँ से होगा ? ऐसी मोहक और लुभावनी भौतिक सीमाओं को पार करके जब व्यक्ति असीम अलक्ष को पाने का प्रयत्न करता है, तभी वह आनंदघन को, आनंद की पराकाष्ठा को पा सकता है। आनंदघनजी का समय अनुमानतः ई. स. 1604 से ई. स. 1674 का माना जा सकता है । भारत के सियासी इतिहास की दृष्टि से यह समय शहनशाह अकबर के अंतिम वर्षों से लेकर जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन के पश्चात औरंगज़ेब के प्रशासन के आरंभिक 15 वर्षों तक फैला हुआ माना जा सकता है । आनंदघनजी की जन्मभूमि राजस्थान होने के कारण उनके जीवन के आरंभिक वर्ष राजस्थान में ही बीते ! इन वर्षों के दौरान राजस्थान का सियासी संघर्ष अपनी चरमसीमा पर था । * जैन संप्रदाय की शाखविशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003220
Book TitleBhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherSahitya Academy
Publication Year2006
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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