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26 : आनंदघन
दे वह कहान (श्रीकृष्ण) और महादेव अर्थात् साक्षात् निर्वाण । निर्वाण अर्थात् शुद्ध दशा का साक्षात्कार, परभाव रमणता का सर्वथा त्याग और अनंत आनंद में लीनता । इसी प्रकार जो अपने शरीर का स्पर्श करे अर्थात् देखे वह पारसनाथ (पार्श्वनाथ) और निज शुद्ध स्वरूप को देखे वह ब्रह्मा है । यदि अध्यात्मरूपी पुरुषार्थ करके स्वभाव को शुद्ध करें तो आत्मा स्वयं ही आनंदघन है । वही चैतन्यस्वरूप है और वही कर्म की मलीनता से रहित है ।
इस प्रसंग में सोमनाथ पाटण के मंदिर प्रवेश के समय कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य द्वारा की गई सोमेश्वर की स्तुति भी अनायास ही याद आ जाती है । उन्हों नें कहा था कि -
भवबीजांकुरजनना, रागाद्यां क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै । ।
जिसमें काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर न रहे हों, वे चाहें फिर ब्रह्मा हों, विष्णु हों शिव हो या जिन (तीर्थंकर) हों, मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ ।
इसमें सत्यसंशोधन का शुभ आशय निहित है । सत्य और समता से व्यापकता और शांति का सर्जन होता है । और उसमें उद्भवित होता है आनंद । आत्मा जब अपने चैतन्यस्वरूप को जाग्रत करती है तब निरंजन निराकार स्वरूप में उसे प्राप्त करने की शुद्ध इच्छा वाला व्यक्ति अंतः आत्मस्वरूप की खोज करता है और यह खोज ही उसे सत्-चित्- आनंद की प्राप्ति कराती है ।
आनंदघन की पांडुलिपियों का संशोधन करते समय उनकी कतिपय अप्रकाशित रचनाएँ मिली थी। उनमें से एक अप्रकाशित रचना श्री लालभाई दलपतभाई विद्यामंदिर के संग्रह (क्रमांक 13482) में उपलब्ध है । राग मल्हार में लिखा गया एक पद इस प्रकार है
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'तुं लग जा रे मनवा मेरा, प्रभु चरणका में चोरी । विषया की संगत होय मत डोलो,
होय भट भेला । 1
भव भवमें कछु चेन न पायो, भव जल हैं ठठनेरा.... आनंदघन कहे पास जिनेसर,
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तम हो सायब मेरा । । 3
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27,
इति पदम्
आनंदघनजी की अनुभवलाली की मस्ती से छलकता 'आतम पियाला' उनके एक अनुपम पद में लाक्षणिक शैली में अभिव्यक्त हुआ है । जिसमें आत्मानंद की भावावस्था प्रकट होती है । वह मस्ती ही कैसी होगी? कवि कहता है - 'हम अमर हो गये । इस अमरत्व का कारण यह है, कि जीवन में से राग-द्वेष विनष्ट हो गये है । मिथ्यात्व त्याग दिया है और स्थूल रूप के स्थान पर सूक्ष्म स्वरूप का निवास बना हूँ तथा आत्मा और मोक्ष, इन दोनों अक्षरों का हम निरंतर स्मरण कर रहे हैं ।
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