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24 : आनंदघन है और वह क्या मांगे ? ऐसा प्रश्न स्वयं से पूछता है, परंतु उसके लक्ष्यार्थ में परमात्मपद की प्राप्ति की उत्कटता है । आरंभ में कवि कहता है -
'अवधू क्या मागुं गुनहीना, वे गुनगनन प्रवीना.' गाय न जानुं बजाय न जानु, न जानुं सुरभेवा, रीझ न जानुं रीझाय न जानु, न जानुं पदसेवा. १ वेद न जानुं किताब न जानु, जाणूं न लक्षण छंदा,
तरक वाद विवाद न जानूं, न जानूं कविफंदा. २०21
आनंदधन के कुछ पदों का तारतम्य उनके जीवन की घटनाओं से जोड़ा गया हैं । यद्यपि इसका कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं मिलता । आनंदघन का एक ऐसा पद है - 'आशा ओरन की क्या कीजे ।' इस संदर्भ में एक ऐसी किंवदंती प्रवर्तित है, कि लाभानंद (आनंदघन का मूल नाम) महाराज, एक शहर में चातुर्मास के लिए रूके थे । उपाश्रय के सेठ उनकी बहुत सेवा करते थे । आग्रहपूर्वक आहार करवाते थे, आवश्यक कपड़े भी देते थे और दिन में अधिकांश समय उनकी सेवा में व्यतीत करते थे।
एक बार उपाश्रय के सेठ पर्युषण पर्व के दौरान पूजा में अधिक समय लग जाने के कारण व्याख्यान में विलंब से पहुँचे । उस समय आनंदघनजी को किसी ने कहा कि सेठ पूजा में व्यस्त है, उन्हें यहाँ पहुँचने में थोड़ी देर लगेगी, अत: व्याख्यान कुछ देर बाद आरंभ कीजिए । परंतु आनंदघनजी ने निश्चित समय से ही व्याख्यान आरंभ कर दिया । थोड़ी देर बाद सेठ पहुँचे । पर्युषण पर्व के व्याख्यान अखण्ड रूप से सुनने की उनकी हार्दिक इच्छा थी, अतः उनके मनमें ग्लानि होना स्वाभाविक था ।
व्याख्यान पूर्ण होने के बाद आनंदघन को सेठ ने कहा - 'सेवक पर जरा दया करके कुछ देर के लिए व्याख्यान रोकना था न ।' आनंदघनजी ने कुछ उत्तर नहीं दिया । सेठ ने वही बात पुनः दोहराते हुए कहा कि 'साहब, मैं आपके लिए आहार
और कपड़ों की व्यवस्था करता हूँ, इतनी सेवा चाकरी करता हूँ उसका तो लिहाज रखना था ? व्याख्यान कुछ देर बाद आरंभ करते तो क्या हो जाता ?'
__ मस्तयोगी आनंदघनजीने कहा, "भाई, आहार तो खा गये और ले ये तेरे कपड़े ।” कपड़े उतारकर दे दिये और जंगल में चले गये, उस सेठ का उपाश्रय छोड दिया और वहाँ इस पद की रचना की । इस पद में कवि ने यह कहा है, कि पराई आशा महानिराशा है और निस्पृहता में महासुख है ।
'आशा ओरन की क्या कीजे ? ग्यान सुधारस पीजे. भटके द्वार द्वार लोकन के, कूकर आशाधारी,
आतम अनुभव रसके रसिया, उतरे न कबहू खुमारी. १:22 दूसरों की आशा रखने के बजाय ज्ञानामृत रस का पान करना चाहिए । आशावश, श्वान लोगों के द्वार द्वार भटकता है, जबकि आत्मानुभव-रस में लीन जीव खुमारी से जीता है । वस्तुत: प्रचलित किंवदंती से यह पद मेल नहीं खाता ।
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