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कृतित्व
मेघधनुष के मनोहारी रंगों जैसी नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा भिन्न-भिन्न शब्दलीलाओं का सृजन करती है । आत्मा की मस्ती में तल्लीन हुए साधक को पल-पल विरल और विलक्षण अनुभूतियाँ होती रहती हैं । ये अनुभूतियाँ जब शब्ददेह के रूप में प्रस्तुत होती हैं तब उसके इतने अधिक भिन्न स्वरूप होते हैं कि ये एक ही व्यक्ति के अंतर का आविष्कार है ऐसा मानने के लिए मन नहीं करता । कवि आनंदघन के स्तवनों और पदों के साथ लगभग ऐसा ही हुआ है । कवि आनंदघन के स्तवन और पद्य उपलब्ध होते हैं । इन स्तवनों में कवि आनंदघन द्वारा रचित स्तवनों और पद्यों की हस्तप्रतें हैं । हस्तप्रत भंडारों में ये रचनाएं 'आनंदघन बावीसी' और 'आनंदघन बहोंतेरी' के नाम से जानी जाती हैं । 'आनंदघन बावीसी' में बाईस स्तवन हैं जबकि जैन धर्म के कुल चौबीस तीर्थंकर हैं और सामान्यत: चौबीस स्तवन ही मिलते हैं । आनंदघन के नाम पर तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ और चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के स्तवन उपलब्ध होते हैं लेकिन वे अन्य के कृतित्त्व मालूम पड़ते हैं । हो सकता है, परम्परा का अनुसरण करते हुए अन्य कवियों ने इसी प्रकार चहुर्विंशतिका जिनस्तवन पूरा किया हो । स्तवनों और पदों अतिरिक्त अलग अलग हस्तप्रतों में आनंदघन की कुछ अप्रकाशित रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं । इन अप्रकाशित रचनाओं में कुछ तो आनन्दघन रचित हैं लेकिन कुछ संदेहास्पद हैं । इन के अंत में आनंदघन का नाम लिखा मिलता है लेकिन यह मानना कठिन है कि ये सभी आनंदघन की रचनाएँ हैं । प्रभाती स्तवन 'नानी बहुनुं अने मोटी बहुनुं पद' जैसी रचनाएँ शंकास्पद लगती हैं जबकि 'ऋषभजिननुं पद' जैसी रचनाएँ आनंदघन रचित लगती हैं।
स्तवन में गहन सिद्धांत बोध, मार्मिक चारित्रदृष्टि और कसौटी पर कसकर आनेवाला योगानुभव ध्यान आकर्षित करता है, जबकि पदों में उर्मिओं का कवित्वमय उछाल, भावोन्मुख वाणी और बिजली की तरह अंतर से प्रकट हुई, उल्लास से भरपूर अनुभूति मिलती है । स्तवनों में आनंदघन जैनशास्त्र की परिभाषा के परिवेश में गहन योगवाणी का आलेखन करते हैं । जब वे पदों में कहते हैं :
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