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________________ जीवन : 7 दिखाते हैं, पर वह समझने के लिए योग्य गुरु के अभाव में बड़े विवाद होते हैं । आखिरकार 'एकला चलो रे' मानकर इस दुष्कर मार्ग पर आगे बढ़ता हूँ । कोई साथी नहीं मिलता । प्रभु के दर्शन की तड़पन कैसे छिपाऊँ ? दूसरे मत को माननेवाले से यदि पूछें, तो वह अपने ही मार्ग का प्रतिपादन करता है । सत्य के स्थान पर सर्वथा मत का ही ममत्व देखने को मिलता है । " मतमत भेदें रे जो जई पूछीड़, सहू थापे अहमेव 17 मतमतांतर और वादविवाद के जाल में चित्त गुमराह हो जाता है । उसे कोई मार्ग सूझता नहीं है । एक ओर दर्शन की लगन उसे बेचैन बनाती है, तो दूसरी ओर कहीं भी प्रकाश न दिखाई देने के कारण हृदय अकुलाहट से व्यग्र हो जाता है " इम अनेक वादी मत विभ्रम संकट पडिओ न लहे, चितसमाधि ते माटे पूछें तुम विण तत कोई न कहे । " 18 भौतिक सुख में डूबे इन्सान आत्मा के अनंत सुख को भूल गए हैं। पिंजरे में कैद तोता मुक्ति का आनंद भुला बैठा है । जगत के लोग माया, कामना या वासना के मोह में फँसे हुए हैं । गच्छ के वितंडावाद में वैराग्य को भुला बैठे हैं और फिर नाभि में कस्तूरी होने के बावजूद कस्तूरी की खोज में कस्तूरीमृग की तरह यहाँ-वहाँ भटकते रहते हैं । इस रागी को विराग की झलक कैसे मिल सकती हैं ? मोह में फँसे इस निर्मोही का दीदार कैसे हो ? इसके लिए तो सर्वस्व त्याग करके अध्यात्म से प्रीति लगानी पड़ेगी । मनमधुकर को प्रभु के चरणों में समर्पित करना पडेगा । लेकिन जगत की दशा ऐसी विचित्र है कि उसके पास भंडार होने के बावजूद यह कौड़ी की तलाश में यहाँ-वहाँ भटक रहा है परमनिधि परगट मुख आगले जगत उल्लंघी हो जाय । जि. ज्योति विना जूओ जगदीसनी अंधो अंध मिलाय । जि. 19 (अर्थात् परमनिधि यानी कि आत्मा का उत्कर्ष एकदम सामने ही है, फिर भी ज्ञानरूपी ज्योति के बिना ईश्वर की झलक संभव नहीं और अंध को अंधा मिले, कुछ ऐसी स्थिति बनी रहती है ।) आनंदघनजी के समय में धार्मिक मतभेद अत्यंत तीव्र ढंग से प्रवर्तमान थे और परिणाम स्वरूप जैन धर्म के अनुयायी श्रावक या साधुजन सही मार्ग से विमुख थे । उपाध्याय श्री यशोविजयजी आनंदघन के समकालीन थे और उन्होंने इस वैराग्य-धर्म में व्याप्त वैभव और विषयों की “ धामधूम" के खिलाफ चेतावनी देते हुए लिखा है - “विषयरसमां गृही माचिया नाचिया कुगुरुमदपूर रे धूमधामे धमाधम चाली, नाचिया ज्ञानमारग रह्यो दूर रे" स्वामि० 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003220
Book TitleBhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherSahitya Academy
Publication Year2006
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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