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6 : आनंदघन
(अर्थात् विविध गच्छों के भेद निहारकर तत्त्व की बात करनेवाले इन गच्छाधिपतियों को लाज नहीं आती । पेट भरने की वृत्ति से ही इनके सारे कर्म प्रेरित होते हैं और कलिकाल में मोह के कारण ये राजकर्ता बने बैठे हैं ।)
सारा जगत भूल-भूलैया में खोया है । कोई तर्क के मार्ग से ईश्वर को पाना चाहता है तो कोई क्रिया से प्रभुमार्ग पर चलता है । गुरु से सच्चे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि गुरु स्वयं ही अज्ञान में भटक रहे हैं।
आनंदघनजी के समकालीन श्रीमद् यशोविजयजी ने “श्री सीमंधर-स्वामीनी विनतिरूप नयरहस्य गर्भित सवासो गाथा- स्तवन" रचा है, उसमें भी अपने समय की गुरुओं की दशा उद्घाटित करते हुए वे कहते हैं -
कुगुरुनी वासना पासमां, हरिण परि जे पड्या लोक रे; तेहने शरण तुज विण नहीं, टलवले बापडा कोक रे. स्वामि०२ ज्ञानदर्शनचरण गुण विना, जे करावे कुलाचार रे, लूटिया तेणे जगि देखतां, किहां करे लोक पोकार रे? स्वामि०३ जेह नवि भव तर्या निरगुणी, तारशे केणी परि तेंह रे ? इम अजाण्या पंडे फंदमां, पापबंधे रह्या जेह रे. स्वामि०४14
(अर्थात् कुगुरु के वासना पाश में फँसे शिष्य कस्तूरी के पीछे भागनेवाले हिरन की तरह व्यर्थ दौड़ लगा रहे हैं । ज्ञान, दर्शन और गुण के बिना जो व्यर्थ कुलाचार में डूबे हैं, वे लुटने के बाद व्यर्थ चिल्लाते हैं । जो स्वयं भव पार करके मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, वह दूसरों का क्या तारणहार बनेगा ? इस तरह अनजाने फंदे में फँसकर पाप बाँधकर ये घूमते रहते हैं ।)
आगमशास्त्र के प्रमाण से यदि वस्तुतत्त्व पर विचार किया जाए तो कहीं भी सच्ची साधना के दर्शन नहीं होते । अरे, कहीं पाँव तक रखने की जगह नहीं है । इष्ट वस्तु को उसके सच्चे स्वरूप में कहनेवाले तो जगत में दुर्लभ ही है। अन्यथा अन्यत्र तो अंधे के साथ अंधा टकराये, ऐसे अज्ञान और अँधकार की टकराहट ही देखने को मिलती है - “पुरुषपरंपर अनुभव जोईइ,
अंधोअंध पिलाय वस्तुविचारें रे जो आगम करी रें,
चरण धरण नहीं ठाय ।"15 "तरक विचारे रे वादपरंपरा
पार न पुहचे रे कोई, अभिमत वस्तु रे वस्तुगते कहे
ते विरलो जगि कोय ।"16 'श्री अभिनंदन जिन स्वरूप' में कवि की ठीक वैसी ही अकुलाहट प्रकट होती है । उसे तो जीवन और मरण की पीड़ा दूर करनी है । सच्चिदानंद के दुर्लभदर्शन की प्राप्ति करनी है । तर्क से वहाँ नहीं पहुंचा जा सकता । आगमशास्त्र उसका मार्ग * सूत्ररूप में ग्रथि तीर्थंकरों के उपदेश को आगमशास्त्र कहते हैं ।
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