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________________ 'आगम' शब्द विमर्श 73 3. आप्तस्तु स्वकर्मण्यभियुक्तो रागद्वेषरहितो ज्ञानवान् शीलसम्पन्नः । इदन्तु ज्ञानोपदेष्टुरेवाप्तलक्षणम् । वस्तुतो यथाभूतस्योपदेष्टा पुरुष इत्येव । अर्थात् ज्ञानवान्, शील सम्पन्न, रागद्वेष रहित पुरुष आप्त कहलाता है, उसके वचन को आप्त-वचन अथवा आगम (शब्द) प्रमाण कहते हैं। 1.4 न्यायदर्शन में आगम - न्यायदर्शन में चार प्रमाणों को स्वीकृत किया गया है - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्दप्रमाण । शब्दबोध रूप यथार्थ ज्ञान के साधन को शब्द कहते हैं । इसी को आप्तवचन और आगम भी कहते हैं । न्यायसूत्रकार गौतम ने आप्तोपदिष्ट वचन को शब्द प्रमाण माना हैआप्तोपदेशः शब्दः । ” परवर्ती आचार्यों ने किंचित् परिवर्तन के साथ इसकी परिभाषा दी है- आप्तवाक्यं शब्दः (तर्कभाषा, तर्कसंग्रह), वात्स्यायन ने न्यायभाष्य में साक्षात्धर्मा या धर्म का साक्षात्कार करने वाले व्यक्ति को आप्त कहा है, चाहे हस्तामलकवत् तत्त्वज्ञान का साक्षात्कार कर लिया है, यथार्थ वक्ता है, रागादि से शून्य है तथा निर्मल अन्तःकरण वाला है वह आप्त है। जैन परम्परा में आगम का स्वरूप दिगम्बर एवं श्वेताम्बर साहित्य में आगम की अनेक परिभाषाएं मिलती हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए प्राप्त परिभाषाओं को निम्नलिखित संवर्ग में रख सकते हैं 1. आगम तीर्थंकर वाणी है- नियमसार में यह तथ्य निर्दिष्ट है कि जो तीर्थकर के मुख से समुद्भूत है वह आगम है तस्समुहग्गदवणं पुव्वापरदोसविरहियं सुद्धं । १८ दु आगमिदि परिकहियं तेण द कहिया हवं तच्चत्था ।। अन्यत्र भी प्रमाण मिलते हैं आगमस्तन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तवस्तुविस्तारसमर्थनदक्षचतुरवचनसंदर्भः" अर्थात् तीर्थंकर के मुखारविन्द से विनिर्गत सम्पूर्ण वस्तुओं के विस्तार के समर्थन में दक्ष एवं चतुर वचन को आगम कहते हैं। 2. आगम वीतराग वाणी है- रागद्वेष-रहित पुरुषों के द्वारा प्रकथित वचन आगम है- आगमो वीतरागवचनम् अर्थात् आगम वीतराग वचन 1 पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति में ऐसा ही उल्लेख हैवीतरागसर्वज्ञप्रणीतषद्रव्यादिसम्यक् श्रद्धानज्ञानव्रताद्यनुष्ठानभेदरत्नत्रयस्वरूपं यत्र प्रतिपाद्यते तदागमशास्त्रं भण्यते । * २१ अर्थात् वीतराग सर्वज्ञदेव के द्वारा कथित षड्द्रव्य एवं सप्ततत्त्वादि का सम्यक् श्रद्धान एवं ज्ञान तथा व्रतादि के अनुष्ठान रूप चारित्र, इस प्रकार जिसमें भेदरत्नत्रय का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है, उसको आगमशास्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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