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________________ आगमों के अधिकार और गणिपिटक की शाश्वतता •आचार्यप्रवर श्री आत्माराम जी महाराज आचार्यप्रवर आत्माराम जी महाराज श्रमण संघ के प्रथम आचार्य थे। उन्होंने कई आगमों का हिन्दी में विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया है। प्रस्तुत पाठ्य सामग्री उनके द्वारा नन्दीसूत्र पर लिखी भूमिका से संगृहीत है। इसमें तीन विषय हैं- (१) आगमों के श्रुतस्कन्ध, अध्ययन आदि का अभिप्राय (२) द्वादशांङ्ग गणिपिटक में परिवर्तनशीलता और (३) श्रुतज्ञान का महत्त्व। -सम्पादक आगमों के अध्ययन आदि अधिकार आगमों का प्रस्तुतीकरण कहीं श्रुतस्कन्ध के रूप में, कहीं वर्ग के रूप में तो कहीं दशा के रूप में होता है। इसी प्रकार शतक, स्थान, समवाय, प्राभृत आदि शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। यहाँ पर उसी की चर्चा की जा रही श्रुतस्कन्ध-अध्ययनों के समूह को स्कन्ध कहते हैं। वैदिक परम्परा में श्रीमद्भागवत पुराण के अन्तर्गत स्कन्धों का प्रयोग किया गया है। प्रत्येक स्कन्ध में अनेक अध्याय हैं। जैनागमों में भी स्कन्ध का प्रयोग हुआ है। केवल स्कन्ध का ही नहीं, अपितु श्रुतस्कन्ध का उल्लेख मिलता है। किसी भी आगम में दो श्रुतस्कन्धों से अधिक स्कन्धों का प्रयोग नहीं मिलता। आचारांग, सूत्रकृतांग, ज्ञाताधर्मकथा, प्रश्नव्याकरण और विपाक सूत्र इनमें प्रत्येक सूत्र के दो भाग किए हैं, जिन्हें जैन परिभाषा में श्रुतस्कन्ध कहते हैं। पहला श्रुतस्कन्ध और दूसरा श्रुतस्कन्ध, इस प्रकार विभाग करने के दो उद्देश्य हो सकते हैं, आचारांग में संयम की आन्तरिक विशुद्धि और बाह्य विशुद्धि की दृष्टि से और सूत्रकृतांग में पद्य और गद्य की दृष्टि से। ज्ञाताधर्मकथा में आराधक और विराधक की दृष्टि से तथा प्रश्नव्याकरण में आश्रव और संवर की दृष्टि से एवं विपाक सूत्र में अशुभविपाक और शुभविपाक की दृष्टि से विषय को दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक श्रुतस्कन्ध में अनेक अध्ययन हैं और किसी-किसी अध्ययन में अनेक उद्देशक भी हैं। वर्ग- वर्ग भी अध्ययनों के समूह को ही कहते हैं, अन्तकृतसूत्र में आठ वर्ग हैं। अनुत्तरौपपातिक में तीन वर्ग और ज्ञाताधर्मकथा के दूसरे श्रुतस्कन्ध में दस वर्ग हैं। दशा- दश अध्ययनों के समूह को दशा कहते हैं। जिनके जीवन की दशा प्रगति की ओर बढी, उसे भी दशा कहते हैं, जैसे कि उपासकदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, अन्तकृद्दशा, इन तीन दशाओं में इतिहास है। जिस दशा में इतिहास की प्रचुरता नहीं, अपितु आचार की प्रचुरता है, वह दशाश्रुतस्कन्ध है, इस सूत्र में दशा का प्रयोग अन्त में न करके आदि में किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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