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________________ जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क (viii) जिन लोगों को प्राकृत भाषाओं के विकास-क्रम का ऐतिहासिक और तुलनात्मक ज्ञान नहीं था ऐसे महानुभावों के द्वारा 'जिनागमों' का संपादन किया गया और इसके कारण भाषा के मूल स्वरूप को समझने की चिंता किये बिना हस्तप्रतों में जो भ्रष्ट पाठ थे उन्हें भी अपना लिया गया। ई.सन् पूर्व छठी शताब्दी की भाषा (पालि और अर्धमागधी) का क्या स्वरूप था, यह हम सब भूल गये और भाषा विज्ञान के विकास के क्रम से अपरिचित लोगों ने अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार प्राचीनतम जिन आगम ग्रंथों का सम्पादन किया, जिसकी भाषा पालिभाषा से मिलती जुलती थी, पालि के निकट की भाषा थी, अशोक, खारवेल और मथुरा के लेखों की भाषा का स्वरूप हमारे सामने था, परंतु कालान्तर में यह सब प्रकाश में आने के बाद भी उनकी भाषाओं की प्राचीनता के स्वरूप (महाराष्ट्री से बिल्कुल भिन्न) पर भी ध्यान दिये बिना आगमों की हस्तप्रतों में अनेक स्थलों पर उपलब्ध हो रहे परिवर्तित भ्रष्ट पाठों को ही मान्यता देकर जिनागमों की मूल भाषा को बदलने में कोई संकोच का अनुभव नहीं किया। कहने को तो बहुत गौरव के साथ इस पर भार देते है कि पवित्र शास्त्र की भाषा में एक भी व्यंजन, मात्रा आदि का लोप, उसकी वृद्धि या परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन स्वयं जैन धर्माचार्यों ने ही इस नियम का पालन नहीं किया है। यह सब हो गया क्योंकि हमारे धार्मिक नेताओं को न तो भाषा का व्यवस्थित अध्ययन करने की रुचि थी और न ही उन्हें बदलते हुए काल और ज्ञान के विकास के साथ अपना परिचय बनाये रखने की तमन्ना थी। आगम प्रभाकर मुनिश्री ने अपने ढंग से इस वास्तविकता को अपने कल्पसूत्र के प्रारंभ में बहुत ही विनयपूर्वक कह दिया है कि मौलिक अर्धमागधी के स्वरूप के विषय में कितना प्रमाद बरता गया और उसे आज एक खिचड़ी भाषा बना दिया गया है, फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और मौलिक भाषा की प्रस्थापना के लिए उपयोगी सुझाव भी प्रस्तुत किये हैं। देखना यह है कि जैन समुदाय में से कौन यह बीड़ा उठाने में अग्रसर होता है? -375, सरस्वती नगर, आजाद सोसायटी के पास, अहमदाबाद-380015 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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