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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क अन्य प्रदेशों की -ओ विभक्ति; र-ल के साथ-साथ र कार ही मिलना; सप्तमी विभक्ति ए. व. की- अंसि के साथ - साथ 'ए' विभक्ति, मागधी में तीनों ऊष्म व्यंजनों के स्थान पर 'श' का आदेश है, परंतु अर्धमागधी में सर्वत्र 'श, ष'= 'स' ही मिलता है (अशोक के पूर्वी भारत के शिलालेखों की भाषा की भी यही स्थिति है, उनमें 'श' कार नहीं मिल रहा है। हो सकता है कि बोलने में 'श' कार बोला जाता हो, परंतु लिखने में 'स' कार ही लिखा जाता हो ।) आज भी पूर्वी उत्तरप्रदेश, बिहार और बंगाल में 'स' के स्थान पर 'श' का उच्चारण अधिक मात्रा में किया जाता है। भ. बुद्ध की पालि भाषा का प्रदेश भी लगभग वही था जो भ. महावीर का था, परंतु उनके त्रिपिटक की पालि भाषा में भी 'श' कार नहीं मिलता है । यही अवस्था दोनों भाषाओं में 'ष' कार की भी है। उसके बदले में सर्वत्र 'स' कार ही मिलता है जैसाकि अशोक के पूर्वी भारत के शिलालेखों में पाया जाता है । खारवेल के हाथीगुंफा के कलिंग (उड़ीसा) और मथुरा के लेखों में भी सर्वत्र 'सकार' ही पाया जाता है। ये ही विशेषताएँ हैं जिनके कारण भ. महावीर के उपदेशों की भाषा को 'अर्धमागधी' कहा गया है।
सभी अर्धमागधी आगम ग्रंथ एक ही काल की रचनाएँ नहीं मानी गयी हैं, परंतु कुछ रचनाएँ और कतिपय रचनाओं में जो-जो प्राचीन अंश मिलते हैं, उनकी भाषा का स्वरूप पालि भाषा के समान ही होना चाहिए था, परंतु सर्वत्र ऐसा नहीं पाया जाता है। उदाहरण के लिए 'आचारांग' का प्रथम श्रुत स्कंध सभी आगम ग्रंथों में प्राचीनतम रचना है जिसकी भाषा, शैली और विषयवस्तु से यह स्पष्ट प्रमाणित होता है, परंतु इसकी भाषा भी अल्पांश में अन्य आगम ग्रंथों की तरह महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हुई है। मौखिक परंपरा और जैन धर्म के प्रसार के दरम्यान जैनों के बदलते हुए केन्द्र स्थलों (पूर्व में राजगृह, पाटलिपुत्र, वैशाली से मथुरा की तरफ और वहां से फिर वलभी (गुजरात) के कारण उन-उन प्रदेशों की भाषाओं का मिश्रण उसमें होता गया और आगमों का एक भी संस्करण मात्र शुद्ध (या प्राचीन) अर्धमागधी में उपलब्ध नहीं है। आगमों की अन्तिम (तीसरी) वाचना वलभीपुर में छठी शताब्दी के प्रारंभ में हुई और उस समय आगमों को लिपिबद्ध किया गया था, परंतु अद्यावधि सभी हस्तप्रतों में भी भाषा का स्वरूप एक समान नहीं मिल रहा है, चाहे वे ताड़पत्र की या कागज की प्रतें हों अथवा प्राचीन या पश्चकालीन प्रतें ही क्यों न हों ? इसका मुख्य कारण यह रहा है कि प्रारंभ से ही उपदेशों की विषयवस्तु पर अत्यधिक भार था न कि भाषा पर, जैसा कि वैदिक परम्परा में पाया जाता है। पालि भाषा को लंका में ई. सन् के पूर्व लगभग प्रथम शताब्दी में ही लिपिबद्ध कर दिया गया था और उसका सरंक्षण भी वहां पर ही होने के कारण उसमें किसी प्रकार का
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