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________________ जैन आगमों की प्राचीनता 49 केवल दृष्टिवाद का कुछ अंश अवशेष है जो षट्खण्डागम के रूप में आज भी विद्यमान है । परन्तु श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से केवल १४ पूर्वी का ज्ञान विच्छिन्न हुआ है जो दृष्टिवाद का एक विभाग था। पूर्व साहित्य से निर्यूढ़ आगम आज भी विद्यमान हैं, जैसे- आचार चूला, दशवैकालिक, निशीथ, दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार, उत्तराध्ययन का परीषह अध्ययन आदि । वर्तमान आगम सुधर्मा स्वामी की देन हैं । आगम ज्ञान तो बहुत विस्तृत था जो गुरु-शिष्य परम्परा से विचक्षण स्मृति के कारण चला आ रहा था | आगम विच्छिन्न होने के मूल कारण भगवान महावीर के पश्चात् होने वाले दुष्काल स्मृति दुर्बलता, पात्रता का अभाव, गुरुपरम्परा का विच्छेद आदि हैं। कल्पसूत्र में वर्णन आता है कि वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी में इनको लिखकर स्थायी किया गया। वर्तमान शास्त्र भगवान महावीर के निर्वाण के ९८० वर्ष बाद लिखित रूप में लाये गये, इससे यह कदापि न समझा जाय कि आगम १५४७ वर्ष पुराने ही हैं? कल्पसूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने एक दिन औषध रूप सूंठ का गांठिया बहरा था । उसमें से उपयोग में लेने के बाद जो अंश बच गया उसे या तो परठना था या फिर कल्पानुसार श्रावकजी को लौटाना था। उस दिन वे उसको अपने कान में अटका कर भूल गये । सांयकालीन प्रतिक्रमण के समय जब हाथ किसी कारणवश कान पर गया तो वह सूंठ का टुकड़ा सामने आ गिरा, तब उनके दिमाग में यह विचार कोंधा कि अब उनकी स्मृति में भूल पड़ने लगी है। अतः आगम ज्ञान जो उनको उनके गुरु से प्राप्त है, स्मृति दुर्बलता से उसमें भी भूल आ सकती है। प्रभु वाणी में स्पष्ट बताया गया है कि ज्यों-ज्यों समय बीतता जायेगा इस पांचवे आरे 'दुषम' में मानवों की स्मरणशक्ति कम होती जायेगी। अत: आगे आने वाली पीढ़ियों में आगम ज्ञान स्मरणशक्ति के बल पर सुरक्षित नहीं रह पायेगा । उस समय के श्रमणों का सम्मेलन बुला कर यह निर्णय लिया गया कि आगमज्ञान को जिसकी लेखनी सुन्दर हो उससे लिखवा कर लिखित रूप में सुरक्षित कर रखा जाय। इसी कारण वीर निर्वाण के ९८० वर्ष बाद आगम लिखे गये जो कि पूर्व में तो साधु समुदाय के मस्तिष्क में ही सुरक्षित रहते थे। अयोग्य तो उसको अर्जित करने का सोच भी नहीं सकते थे। अब तो जिसके भी ये लिखित शास्त्र हाथ पड़ जावें वहीं उसको पढ़ सकता था । यदि सुबुद्धि न हो तो कुबुद्धि से इनका दुरुपयोग भी किया जा सकता था । आगम के लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किये हैं। उसमें रामायण, महाभारत प्रभृति ग्रंथों को लौकिक आगम में गिना है। जबकि गवकलांग एथति आगमों को लोकोत्तर आगम कहा गया है। सानागंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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