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1506 म जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क और पर्युषण।
श्वेताम्बर आगमों में भी इन दस कल्पों का विस्तार से वर्णन मिलता है। विजयोदया टीकाकार ने अपनी टीका में इनका वर्णन बहुत विस्तार से किया है।
निर्यापक आचार्य के गुणों में एक गुण अवपीडक है। समाधि लेने से पूर्व दोषों की विशुद्धि के लिये आचार्य उस क्षपक से उसके पूर्वकृतदोष बाहर निकालते हैं। यदि वह अपने दोषों को छिपाता है तो जैसे सिंह सियार के पेट में गये मांस को भी उगलवाता है वैसे ही अवपीडक आचार्य उस क्षपक के अन्तर में छिपे मायाशल्य दोषों को बाहर निकालता है।।४७९।।
आचार्य के सन्मुख अपने दोषों की आलोचना करने का बहुत महत्त्व है उसके बिना समाधि सम्भव नहीं होती। अतः समाधि का इच्छुक क्षपक दक्षिण पार्श्व में पीछी के साथ हाथों की अंजलि मस्तक से लगाकर मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक गुरु की वन्दना करके सब दोषों को त्याग आलोचना करता है। अत: गाथा ५६४ में आलोचना के दस दोष कहे हैं। यह गाथा सर्वार्थसिद्धि (९-२२) में भी आई है। आगे ग्रन्थकार ने प्रत्येक दोष का कथन किया है।
- आचार्य परीक्षा के लिए क्षपक से तीन बार उसके दोषों को स्वीकार कराते हैं। यदि वह तीनों बार एक ही बात कहता है तो उसे सरलहृदय मानते हैं। किन्तु यदि वह उलटफेर करता है तो उसे मायावी मानते हैं और उसकी शुद्धि नहीं करते।
__ इस प्रकार श्रुत का पारगामी और प्रायश्चित्त के क्रम का ज्ञाता आचार्य क्षपक की विशुद्धि करता है। ऐसे आचार्य के न होने पर प्रवर्तक अथवा स्थविर निर्यापक का कार्य करते हैं। जो अल्पशास्त्रज्ञ होते हुए भी संघ की मर्यादा को जानता है, उसे प्रवर्तक कहते हैं। जिसे दीक्षा लिए बहुत समय बीत गया है तथा जो मार्ग को जानता है उसे स्थविर कहते हैं।
उदाहरणों के द्वारा निर्यापक आचार्य क्षपक को कष्ट-विपत्ति के समय दृढ़ करते हैं। मरणोत्तर विधि- गा. १९६८ में मरणोत्तर विधि का वर्णन है। जो आज के युग के लोगों को विचित्र लग सकती है। यथा१. जिस समय साधु मरे उसे तत्काल वहाँ से हटा देना चाहिए। यदि असमय में मरा हो तो जागरण, बन्धन या छेदन करना चाहिये।।१९६८।। २. यदि ऐसा न किया जाये तो कोई विनोदी देवता मृतक को उठाकर दौड़ सकता है, क्रीड़ा कर सकता है, बाधा पहुँचा सकता है।।१९७१ ।। ३. अनिष्टकाल में मरण होने पर शेष साधुओं में से एक दो का मरण हो सकता है इसलिये संघ की रक्षा के लिये तृणों का पुतला बनाकर मृतक के साथ रख देना चाहिये।
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