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________________ भगवती आराधना 505] इस प्रकार शरीर की सल्लेखना करते हुए वह परिणामों की विशुद्धि की ओर सावधान रहता है। एक क्षण के लिए भी उस ओर से उदासीन नहीं होता। इस प्रकार से सल्लेखना करने वाले या तो आचार्य होते हैं या सामान्य साधु होते हैं। यदि आचार्य होते हैं तो वे शुभमुहर्त में सब संघ को बलाकर योग्य शिष्य पर उसका भार सौंपकर सबसे क्षमायाचना करते हैं और नये आचार्य को शिक्षा देते हैं। उसके पश्चात् संघ को शिक्षा देते हैं। यथा-- हे साधुओं! आपको विष और आग के तुल्य आर्याओं का संसर्ग छोड़ना चाहिये । आर्या के साथ रहनेवाला साधु शीघ्र ही अपयश का भागी होता है।।३३२ ।। महान् संयमी भी दुर्जनों के द्वारा किये गये दोष से अनर्थ का भागी होता है अत: दुर्जनों की संगति से बचो।।३५०।। सज्जनों की संगति से दुर्जन भी अपना दोष छोड़ देते हैं, जैसेसुमेरु पर्वत का आश्रय लेने पर कौवा अपनी असुन्दर छवि को छोड़ देता है।।३५२ ।। जैसे गन्धरहित फूल भी देवता के संसर्ग से उसके आशीर्वादरूप सिर पर धारण किया जाता है उसी प्रकार सुजनों के मध्य में रहने वाला दुर्जन भी पूजित होता है।।३५३ ।। ___गुरु के द्वारा हृदय को अप्रिय लगने वाले वचन भी कहे जाने पर पथ्यरूप से ही ग्रहण करना चाहिए। जैसे बच्चे को जबरदस्ती मुँह खोल पिलाया गया घी हितकारी होता है।।३६० ।। अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करनी चाहिए। जो अपनी प्रशंसा करता है वह सज्जनों के मध्य में तृण की तरह लघु होता है।।३६१ ।। इस प्रकार आचार्य संघ को उपदेश देकर अपनी आराधना के लिए अपना संघ त्यागकर अन्य संघ में जाते हैं। ऐसा करने में ग्रन्थकार ने जो उपपत्तियाँ दी हैं वे बहुमूल्य हैं।।३८५ ।। समाधि का इच्छुक साधु निर्यापक की खोज में पाँच सौ सात सौ योजन तक भी जाता है ऐसा करने में उसे बारह वर्ष तक लग सकते हैं।।४०३-४०४।। इस काल में यदि उसका मरण भी हो जाता है तो वह आराधक ही माना गया है।।४०६।। योग्य निर्यापक को खोजते हुए जब वह किसी संघ में जाता है तब उसकी परीक्षा की जाती है। जिस प्रकार का आचार्य निर्यापक होता है उसके गुणों का वर्णन विस्तार से किया है। उसका प्रथम गुण है आचारवत्त्व। जो दस प्रकार के स्थितिकल्प में स्थित होता है वह आचारवान होता गाथा ४२३ में इनका कथन है- ये दस कल्प हैं- आचेलक्य, उहिष्टत्याग, शय्यागृह का त्याग, कृतिकर्म, व्रत. ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण , मास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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