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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क] प्रथम खण्ड 'जीवट्ठाण' है। इसके अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वार और नौ चूलिकाओं में गुणस्थान और मार्गणाओं का आश्रय लेकर जीव का वर्णन किया गया है। द्वितीय खण्ड 'खुद्दाबंध' है। इस क्षुल्लक बन्धखण्ड में ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्मबन्ध करने वाले जीव का वर्णन किया गया है। तीसरे खण्ड 'बंधस्वामित्वविषय' में कितनी प्रकृतियों का किस जीव के कहां तक बंध होता है, किसके नहीं होता है, कितनी प्रकृतियों की किस गुणस्थान में व्युच्छित्ति होती है, स्वोदय और परोदय बन्धरूप प्रकृतियां कितनी-कितनी हैं, इत्यादि विषयों का वर्णन है। चतुर्थ खण्ड 'वेदनाखण्ड' है। इसके अन्तर्गत कृति और वेदना अनुयोग द्वार हैं। पाँचवें ‘वर्गणाखण्ड' में बन्धनीय के अन्तर्गत वर्गणा अधिकार के अतिरिक्त स्पर्श, कर्मप्रकृति और बन्धन का पहला भेद बंध, इन अनुयोगद्वारों का वर्णन किया गया है। इन्द्रनन्दी ने श्रुतावतार में कहा है कि भूतबली ने पुष्पदन्त विरचित पाँच खण्डों के सूत्रों सहित, छह हजार सूत्र रचने के पश्चात् महाबंध नामक छठे खण्ड की रचना की। इसमें प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्ध का विस्तृत वर्णन है। षट्खण्डागम टीकाग्रन्थ
आगमज्ञान के इस अनुपम भण्डार के लिपिबद्ध होने पर ही आचार्यों का ध्यान इसकी टीका / भाष्य की ओर गया। कर्मप्राभृत (षट्खण्डागम) और कषायप्राभृत-इन दोनों सिद्धान्तों का ज्ञान गुरु-परम्परा से कुन्दकुन्दपुर के पद्मनन्दी मुनि को प्राप्त हुआ और उन्होंने सबसे पहले षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण टीकाग्रन्थ लिखा जिसका नाम 'परिकर्म' था। अफसोस, आज यह टीका हमें उपलब्ध नहीं है।
महान् तार्किक आचार्य समन्तभद्र ने षट्खण्डागम के पाँच खण्डों पर अड़तालीस हजार श्लोक प्रमाण विशाल टीका की। यह अत्यन्त सरल और मृदुल संस्कृत में लिखी गई थी।
षटखण्डागम के प्रथम पाँच खण्डों पर और कषायप्राभृत पर शामकुन्द द्वारा तीसरी टीका लिखी गई है।
__ तुम्बुलूर नामक आचार्य की 'चूड़ामणि' टीका इस आगम ग्रन्थ की चौथी टीका है।
बप्पदेव गुरु के द्वारा इस ग्रन्थ की 'व्याख्या प्रज्ञप्ति' नामक पाँचवी टीका हुई।
ये पाँचों टीकाएँ षट्खण्डागम के मूललेखन के काल यानी विक्रम की दूसरी सदी से वीरसेन की धवला टीका के रचनाकाल ईसा की नौवीं शताब्दी तक की हैं। पद्मनन्दी प्रथम शताब्दी में, समन्तभद्र दूसरी शताब्दी में, शामकुन्द तीसरी शताब्दी में, तुम्बुलूर चौथी में और बप्पदेव आठवीं शताब्दी ईसवी में हुए। आचार्य वीरसेन की टीका (धवला) का काल ईसा की नवम शताब्दी का प्रथम चरण है।
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