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षट्खण्डागम और कसायपाहुड
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समर्थ साधक भिजवाने का अपना अभिप्राय प्रकट किया। मुनि सम्मेलन में इस महान् आचार्य के अभिप्राय को पूर्ण सम्मान दिया गया और तत्रस्थित साधुओं में से विषयाशानिवृत्त और ज्ञानध्यान में अनुरक्त दो समर्थ, दृढ़ श्रद्धानी साधुओं- पुष्पदन्त और भूतबली को गिरनार की ओर विहार
करवाया।
जब मुनि पुष्पदन्त और भूतबली गिरनार पहुंचने वाले थे उसकी पूर्व रात्रि में आचार्य धरसेन स्वामी ने देखा कि दो शुक्ल वर्ण के वृषभ आ रहे हैं। स्वप्न देखते ही उनके मुंह से निकल पड़ा- 'जयउ सुददेवता' श्रुतदेवता जयवन्त रहे। दूसरे दिन दोनों साधु आचार्य चरणों में उपस्थित हो गये । भक्तिपूर्वक आचार्यवन्दना करके उन्होंने अपने आने का प्रयोजन बताया। परीक्षाप्रधानी आचार्य ने दोनों मुनियों को एक-एक मंत्र देकर उसे सिद्ध करने का आदेश दिया। योग्य मुनियों ने मंत्र सिद्ध किया, परन्तु मंत्रों की वशवर्ती देवियाँ जब साधकों के सामने आज्ञा मांगने प्रगट हुई तो वे सुन्दर नहीं थीएक के दांत बढ़े हुए थे, दूसरी एकाक्षी थी। समर्थ साधकों ने तुरन्त भांप लिया कि उनके मंत्र अधिकाक्षर और न्यूनाक्षर दोषग्रस्त थे। उन्होंने अपने मन्त्रों को शुद्ध किया और पुनः साधना - संलग्न हुए तब दोनों के सामने सुदर्शन देवियां प्रकट हुई। आचार्य धरसेन ने दोनों की भक्ति और निष्ठा को जानकर उसी दिन से उन्हें महाकर्मप्रकृति प्राभृत रूप आगम ज्ञान प्रदान करना प्रारम्भ कर दिया।
दोनों शिष्यों ने विनीत भाव से उस अनमोल धरोहर को ग्रहण किया और अपनी धारणा में उसका संचय किया । आषाढ़ शुक्ला एकादशी के पुनीत दिवस पर ज्ञान दान का यह महान् अनुष्ठान सम्पन्न हुआ । वर्षायोग निकट था । प्रात: दूसरे ही दिन आचार्य धरसेन ने मुनि पुष्पदन्त और भूतबली को विहार करने का आदेश दे दिया। दोनों मुनि वहां से विहार कर नौ दिनों के बाद अंकलेश्वर पहुंचे। वहां उन्होंने वर्षायोग धारण किया और गुरु से अधीत ज्ञान के आधार पर सूत्र रचना का कार्य प्रारम्भ कर दिया और अनवरत उसी में संलग्न कर उसे पूर्ण किया। पुष्पदन्त और भूतबली द्वारा आगम को लिपिबद्ध करने का यह नूतन प्रयास सबके द्वारा समादृत हुआ । समकालीन और परवर्ती ज्ञानपिपासु आचार्यों ने इन सूत्रों की उपयोगिता और महत्ता को स्वीकार किया।
षट्खण्डानुक्रम
आचार्य पुष्पदन्त द्वारा प्रणीत ग्रन्थ की प्रथम गाथा हमारा 'पंच नमस्कार मंत्र' या 'णमोकार मंत्र' ही है जो दीर्घकाल से प्रत्येक जैन के कण्ठ की शोभा है। इस आगम ग्रन्थ को आज आगमसिद्धान्त, परमागम और षट्खण्डागम आदि नामों से जाना जाता है। संक्षेप में षट्खण्डागम का वर्ण्य विषय इस प्रकार है
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