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________________ जैनागमों का व्याख्या साहित्य 483 सूत्रकृतांगचूर्णि - - यह चूर्णि भी नियुक्ति का अनुसरण करके लिखी गई है। इस चूर्ण में नागार्जुनीय वाचना के जगह-जगह पाठान्तर दिये हैं। अनेक देशों के रीति रिवाज आदि का उल्लेख है । उदाहरण के लिए - सिन्धु देश में पण्णत्ति का स्वाध्याय करने का मना है । गोल्ल देश में कोई किसी पुरुष की हत्या कर दे तो वह किसी ब्राह्मणघातक के समान ही निंदनीय समझा जाता है। आर्द्रकुमार के वृत्तांत में आर्द्रक को म्लेच्छ देश का रहने वाला बताया है। आर्यदेशवासी श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार से मित्रता करने के लिए आर्द्रक ने उसके लिए भेंट भेजी थी। बौद्धों के जातकों का उल्लेख है । व्याख्याप्रज्ञप्ति चूर्णि - व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र पर यह अतिलघु चूर्णि है, जो अप्रकाशित है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति चूर्णि - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र की चूर्णि भी अप्रकाशित है। निशीथविशेषचूर्णि - निशीथ पर लिखी हुई चूर्णि को विसेसचुण्णि (विशेषचूर्णि ) कहा गया है। इसके कर्ता जिनदासगणि महत्तर हैं। निशीथ चूर्णि अनुपलब्ध है। इसमें पिंडनियुक्ति और ओघनियुक्ति का उल्लेख मिलता है, जिससे पता चलता है कि यह चूर्णि इन दोनों नियुक्तियों के बाद लिखी गई है । साधुओं के आचार-विचार से संबंध रखने वाले अपवादसंबंधी अनेक नियमों का यहां वर्णन है। साधुओं के आचार-विचार के वर्णन के प्रसंग में यहां अनेक देशों में प्रचलित रीति-रिवाजों का उल्लेख है। लाटदेश में मामा की लड़की से विवाह किया जा सकता था । मालव और सिन्धु देश के कठोरभाषी तथा महाराष्ट्र के लोग वाचाल माने जाते थे । निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीवक-इन पांचों की श्रमण में गणना की गई है । श्वानों के सम्बन्ध में बताया है कि केलास पर्वत (मेरु) पर रहने वाले देव यक्ष रूप में (श्वानरूप में) इस मर्त्यलोक में रहते हैं। शक, यवन, मालव तथा आंध्र - दमिल का यहां उल्लेख है। दशाश्रुतस्कंधचूर्णि - दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति की भांति इसकी चूर्णि भी लघु है। यह चूर्णि भी नियुक्ति का अनुसरण करके लिखी गई है। मूल सूत्रपाठ और चूर्णिसम्मत पाठ में कहीं-कहीं कुछ अन्तर है। यहां भी अनेक श्लोक उद्धृत हैं। दशा, कल्प और व्यवहार को प्रत्याख्यान नामक पूर्व में से उद्धृत बताया है । दृष्टिवाद का असमाधिस्थान नामक प्राभृत से भद्रबाहु ने उद्धार किया। आठवें कर्मप्रवादपूर्व में आठ महानिमित्तों का विवेचन है। प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन और आचार्य कालक की कथा उल्लिखित है। सिद्धसेन का उल्लेख मिलता है। गोशाल को भारीयगोशाल कहा है, इसका तात्पर्य है जो गुरु की अवहेलना करता है और उसके कथन को नहीं मानता। अंगुष्ठ और प्रदेशिनी (तर्जनी) उंगली में जितने चावल एक बार आ सकें, उतने ही चावलों को भक्षण करने वाले आदि अनेक तापसों का उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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