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________________ आगम-साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान,महत्त्व,रचनाकाल एवं रचयिता 45.7 पूर्ववर्ती है और मूलाचार परवर्ती है। ३. भगवती आराधना में भी मरणविभक्ति की अनेक गाथाए समान रूप से मिलती हैं। वर्ण्य विषय की समानता होते हए भी भगवती आराधना में जो विस्तार है, वह मरणविभक्ति में नहीं है। प्राचीन स्तर के ग्रन्थ मात्र श्रुतपरम्परा से कण्ठस्थ किये जाते थे, अत: वे आकार मेकं संक्षिप्त होते थे ताकि उन्हें सुगमता से याद रखा जा सके, जबकि लेखन परम्परा के विकसित होने के पश्चात् विशालकाय ग्रन्थ निर्मित होने लगे। मूलाचार और भगवती आराधना दोनों विशाल ग्रन्थ है, अत: वे प्रकीर्णकों से अपेक्षाकृत परवर्ती है। वस्तुत: प्रकीर्णक साहित्य के वे सभी ग्रनथ जो नन्दीसूत्र और पाक्षिक सूत्र में उल्लिखित हैं और वर्तमान में उपलब्ध हैं, निश्चित ही ईसा की पांचवी शती पूर्व के हैं। प्रकीर्णकों में ज्योतिषकरण्डक नामक प्रकीर्णक का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें श्रमण गन्धहस्ती और प्रतिहस्ती का उल्लेख मिलता है। इसमें यह भी कहा गया है कि जिस विषय का सूर्यप्रज्ञति में विस्तार से विवेचन है,उसी को संक्षेप में यहां दिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह प्रकीर्णक सूर्यप्रज्ञप्ति के आधर पर निर्मित किया गया है। इसमेंकर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य का भी यह स्पष्टउल्लेख हुआ है। पादलिप्ताचार्य का उल्लेख नियुक्ति साहित्य में भी उपलब्ध होता है (लगभग ईसा की प्रथम शती) इससे यही फलित होता है कि ज्योतिष्करण्डक का रचनाकाल भी ई. सन् की प्रथम शती है। अंगबाह्य आगमों में सूर्यप्रज्ञप्ति, जिसके आधार पर इस ग्रन्थ की रचना हुई, एक प्राचीन ग्रन्थ है क्योंकि इसमें जो ज्योतिष संबंधी वितरण हैं, वह ईस्वी पूर्व के हैं, उसके आधार पर भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। साथ ही इसकी भाषा में अर्धमागधी रूपों की प्रचुरता भी इसे प्राचीन ग्रन्थ सिद्ध करती है। अतः प्रकीर्णकों के रचनाकाल की पूर्व सीमा ई. पू. चतुर्थ-तृतीय शती से प्रारम्भ होती है। परवर्ती कुछ प्रकीर्णक जैसे कुशलानुबंधि अध्ययन, चतु:शरण, भक्तपरिज्ञा आदि वीरभद्र की रचना माने जतो हैं, वे निश्चित ही ईसा की दशवी शती की रचनाएं हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल ई. पू. चतुर्थ शती से प्रारम्भ होकर ईसा की दसवी शती तक अर्थात् लगभग पन्द्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि तक व्याप्त है। प्रकीर्णक के रचयिता प्रकीर्णक साहित्य के रचनाकाल के संबंध में विचार करते हुए हमने यह पाया कि अधिकांश प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिता क संदर्भ में कही कोई उल्लेख नहीं है। प्राचीन स्तर के प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित , चन्द्रवेध्यक, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, गणिवद्यिा, देवेन्द्रस्तव और ज्योतिष्करण्डक दो ही प्राचीन प्रकीर्णक ऐसे हैं, जिनकी अन्तिम गाथाओं में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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