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PARAL
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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिणणा, संथारग और आराहनापडाया को छोड़कर शेष प्रकीर्णक ई. सन् की पांचवी शती के पूर्व की रचनाएँ हैं। ज्ञातव्य है कि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित 'पइण्णयसुत्ताइ' में आरपच्चक्खाण परवर्ती है, किन्तु नन्दीसूत्र में उल्लिखत आरपच्चक्खाण तो प्राचीन ही है।
यहां पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य अंग-आगमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र जैसे प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों में भी पायी जाती है। गद्य अंग आगमों, में पद्यरूप में इन गाथाओं की उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है कि उनमें ये गाथाएँ प्रकीर्णकों से अवंतरित है। यह कार्य वलभीवाचना के पूर्व हुआ है, अत: फलित होता है कि नन्दीसूत्र में उल्लिखत प्रकीर्णक वलभीवाचना के पूर्व रचित है। तंदुलवैचारिक 'का उल्लेख दशवैकालिक की प्राचीन अगस्त्यसिंह चूर्णि में है। इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। यहचूर्णि अन्य चूर्णियों की अपेक्षा प्राचीन मानी गयी है।
दिगम्बर परम्परा में मूलाचार, भगवती आराधना और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएं अपने शौरसेनी रूपान्तरण में मिलती है। मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान इन दोनों प्रकीर्णकों की लगभग सत्तर से अधिक गाथाएँ हैं। इसी प्रकार मरणविभक्ति प्रकीर्णक की लगभग शताधिक गाथाएँ भगवती आराधना में मिलती हैं। इससे यह फलित होता है कि ये प्रकीर्णक ग्रन्थ मूलाचार एवं भगवती आराधना के पूर्व के हैं। मूलाचार एवं भगवती आराधना के रचनाकाल को लेकर चाहे कितना भी मतभेद हो, किन्तु इतना निश्चित है कि ये ग्रन्थ ईसा की छठी शती से परवर्ती नहीं है।
यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रकीर्णक में ये गाथाएं इन यापनीय/अचेल परम्परा के ग्रन्थों से ली गयी होंगी, किन्तु अनेक प्रमाणों के आधार पर यह दावा निरस्त हो जाता है। जिनमें से कुछ प्रमाण इस प्रकार
१. गुणस्थान सिद्धान्त उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र और आचारांग नियुक्ति की रचना के पश्चात् लगभग पांचवी छठी शती में अस्तित्व में आया है। चूंकि मूलाचार और भगवती आरााधना दोनों ग्रन्थों में गुणस्थान का उल्लेख मिलता है, अत: ये ग्रन्थ पांचवी शती के बाद की रचनाएँ है जबकि आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से ये ग्रन्थ पांचवी शती के पर्व की रचनाएं है।
२. मूलाचार में संक्षिप्तप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्ययन बनाकर उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक दोनों ग्रन्थों को समाहित किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि ये ग्रन्थ
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