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________________ जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक बढाते हुए प्रमाद को घटाया जा सकेगा और ज्ञान-परम्परा को भी शताब्दियों तक अबाध रूप से सुरक्षित रखा जा सकेगा. तब शास्त्रों का लेखन सम्पन्न किया गया । इस प्रकार संघ को ज्ञानहानि और प्रमाद से बचाने के लिये संतों ने शास्त्रों को लिपिबद्ध करने का निश्चय किया। जैन परम्परानुसार आर्यरक्षित एवं आर्य स्कन्दिल के समय में कुछ शास्त्रीय भागों का लेखन प्रारम्भ हुआ माना गया है। किन्तु आगमों का सुव्यवस्थित सम्पूर्ण लेखन तो आचार्य देवर्द्धि क्षमाश्रमण द्वारा वल्लभी में ही सम्पन्न किया जाना माना जाता है। देवर्द्धि के समय में कितने व कौन-कौन से शास्त्र लिपिबद्ध कर लिये गये एवं उनमें से आज कितने उसी रूप में विद्यमान हैं, प्रमाणाभाव में यह नहीं कहा जा सकता। “आगम पुत्थयलिहिओ'' इस परम्परागत अनुश्रुति में सामान्य रूप से आगम पुस्तक रूप में लिखे गये- इतना ही कहा गया है। संख्या का कहीं कोई उल्लेख तक भी उपलब्ध नहीं होता। अर्वाचीन पुस्तकों में ८४ आगम और अनेक ग्रन्थों के पुस्तकारूढ करने का उल्लेख किया गया है। नंदीसूत्र में कालिक और उत्कालिक श्रुत का परिचय देते हुए कुछ नामावली प्रस्तुत की है। बहुत संभव है देवर्द्धि क्षमाश्रमण के समय में वे श्रुत विद्यमान हों और उनमें से अधिकांश सूत्रों का देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने लेखन करवा लिया हो। नन्दीसूत्र में अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य भेद करके अंगप्रविष्ट में १२ अंगों का निरूपण किया गया है। अंगबाह्य को दो भागों में विभक्त किया गया है- १. आवश्यक एवं २. आवश्यक व्यतिरिक्त। आवश्यक-१. सामाइयं २. चउवीसत्थओ ३. वंदणयं ४. पडिक्कमणं ५. काउस्सग्गो ६. पच्चक्खाणं। आवश्यक व्यतिरिक्त- १. कालिक २. उत्कालिक। पूर्ण नामावली इस प्रकार है अंगप्रविष्ट (12 अंग) १. आयारो २. सुयगडो ३. ठाणं ४. समवाओ ५. वियाहपण्णत्ती ६. नायाधम्मकहाओ ७. उवासगदसाओ ८. अंतगडदसाओ ९. अणुत्तरोववाइयदसाओ १०. पण्हावागरणाई ११. विवाग सुयं १२. दिट्ठिवाओ (विच्छिन्न) १. दसवेयालियं ३. चुल्लकप्पसुयं ५. उववाइय ७. जीवाभिगम उत्कालिक श्रुत २. कप्पियाकप्पियं ४. महाकप्पसुयं ६. रायपसेणइय ८.पन्नवणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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