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________________ आवश्यक सूत्र 447 स्वभाव रूप सीमा में प्रत्यागमन करना प्रतिक्रमण है। जो पाप मन, वचन और काया से किये जाते हैं, दूसरों से करवाये जाते हैं और दूसरों के द्वारा किये हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, उन सभी पापों की निवृत्ति हेतु किये गये पापों की आलोचना करना, निन्दा करना प्रतिक्रमण है। साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग ये पाँचों भयंकर दोष हैं। साधक प्रात: और संध्या के सुहावने समय में अपने जीवन का अन्तर्निरीक्षण करता है, उस समय वह गहराई से चिन्तन करता है कि वह सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व के मार्ग की ओर तो नहीं जा रहा है। आचार्य भद्रबाहु ने बताया कि साधक को प्रतिक्रमण में प्रमुख रूप से चार विषयों पर गहराई से चिन्तन करना चाहिए। इस दृष्टि से प्रतिक्रमण के चार भेद बनते हैं। उन्होंने आवश्यक नियुक्ति में बताया है पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं । असद्दहणे य तहा, विवरीयपरूवणाए अ।। साधु व श्रावक के लिये क्रमश: महाव्रतों और अणुव्रतों का विधान है। उसमें दोष न लगे, इसके लिये सतत सावधानी आवश्यक है। यद्यपि साधु और श्रावक सावधान रहता है, फिर भी कभी-कभी असावधानीवश अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह की स्खलना हो गई हो तो उनकी शुद्धि हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिये। साधु और श्रावक के लिये एक आचारसंहिता आगम साहित्य में निरूपित है। साधु के लिये ध्यान, प्रतिलेखना, स्वाध्याय आदि अनेक विधान हैं तो श्रावक के लिये भी दैनंदिन साधना का विधान है। यदि उन विधानों की पालना में भी त्रुटि हो जाय तो उस संबंध में प्रतिक्रमण करना चाहिये। _आत्मा आदि अमूर्त पदार्थों को प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा सिद्ध करना बहुत कठिन है। वह तो आगम के प्रमाणों के द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है। उनके प्रति अश्रद्धा उत्पन्न हुई हो तो उसकी शुद्धि के लिये साधक को प्रतिक्रमण करना चाहिए। हिंसा आदि दृष्कृत्य, जिनका महर्षियों ने निषेध किया है, साधक उन दुष्कृत्यों का प्रतिपादन न करें। यदि असावधानीवश हो गया हो तो उनकी शुद्धि करें। अनुयोगद्वार सूत्र में प्रतिक्रमण दो प्रकार के बताये गये हैं- द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण। द्रव्य प्रतिक्रमण में साधक एक स्थान पर स्थित होकर बिना उपयोग के यशप्राप्ति की अभिलाषा से प्रतिक्रमण करता है। यह प्रतिक्रमण यंत्र की तरह चलता है, उसमें चिन्तन का अभाव होता है। पापों के प्रति मन में ग्लानि नहीं होती। केवल मात्र दिखावा ही है। इससे जैसी शुद्धि होनी चाहिये वैसी नहीं हो पाती। भाव प्रतिक्रमण में साधक अन्तर्मन से किये हुये पापों की आलोचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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